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जो आर्त होते जोड़ते रखते रखाते यत्न से । वे पाप मोहितमती हैं वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ||५|| अर कलह करते जुआ खेलें मानमंडित नित्य जो । वे प्राप्त होते नरकगति को सदा ही जिन लिंगधर ||६ ॥ जो पाप उपहत आत्मा अब्रह्म सेवें लिंगधर । वे पाप मोहितमती जन संसारवन में नित भ्रमें ||७|| जिनलिंगधर भी ज्ञान दर्शन-चरण धारण ना करें । वे आर्तध्यानी द्रव्यलिंगी नंत संसारी कहे ||८|| रे जो करावें शादियाँ कृषि वणज कर हिंसा करें । वे लिंगधर ये पाप कर जावें नियम से नरक में ||९||
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