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दशकरण चर्चा रहता है और आनन्द भी भोगता रहता है। इसी क्रम में वीतराग परिणामों में और विशेषता आती रहती है। उसी विशेषता को अनिवृत्तिकरण परिणाम कहते हैं। इसे नौवाँ गुणस्थान भी कहते हैं।
परिणामों में अनिवृत्तिपना आते ही अत्यन्त दृढ़ ऐसे निधत्तिनिकाचित कर्म की दृढ़ता स्वयमेव नष्ट होती है और वे कर्म सामान्य कर्म बनकर यथायोग्य समय पर उदय में आते हैं। जैसे जमे हुए घी को अग्नि का संपर्क चालू होते ही वह घी तत्काल पिघलने लगता है, वैसे अनिवृत्तिकरण परिणाम उत्पन्न होते ही निधत्ति, निकाचित कर्मों का तत्काल नाश हो जाता है। इस कारण वे निधत्ति, निकाचित कर्म ही सामान्य कर्मरूप से परिणत हो जाते हैं और यथायोग्य समय पर यथायोग्य फल देते हैं। __ मोक्षमार्ग विशेष-विशेष विकसित होता रहता है। साक्षात् भगवान होने का कार्य गतिशील रहता है और अल्पकाल में ही वे महान पुरुषार्थी क्षपक मुनिराज अरहंत बनते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यह हो गया कि क्षपक मुनिराज ही अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में निधत्ति, निकाचित कर्मों को वृद्धिंगत वीतराग परिणामों से नष्ट करते हैं।
उपशमक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त मुनिराज भी निधत्तिनिकाचित कर्मों से रहित होते हैं।
आठवें गुणस्थान तक व्यक्त होने वाला धर्म (वीतराग, रत्नत्रय) निधत्ति, निकाचित कर्मों को नष्ट नहीं करता। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि कर्मों का निधत्ति, निकाचितपना प्रथम गुणस्थान से आठवें गुणस्थान तक रहता है, आगे नहीं; क्योंकि अनिवृत्तिकरण आदि गुणस्थानवर्ती मुनिराज का व्यक्त धर्म विशेष बलवान होने से कर्म पराभूत हो जाते हैं।
भावदीपिका चूलिका अधिकार यहाँ निधत्ति एवं निकाचितकरण विषयक भावदीपिका का अंश दिया है। कर्म का निधत्तिकरण कहते हैं :
सत्ता में रहे हए ज्ञानावरणादि कर्म, उनमें से जिस कर्म के द्रव्य की जितने काल तक उदीरणा भी न हो और संक्रमण भी न हो, उतने काल तक निधत्तिकरण कहलाता है। __जो कर्म जैसी स्थिति-अनुभाग को लिये आत्मा के शुभाशुभभावों से बंधा है, वैसे ही जितने काल तक अतिदृढ़ हो निधत्तिकरणरूप होकर रहता है, उसकी जितने काल तक उदीरणा और संक्रमण नहीं हो सकता, उतने काल तक उस कर्म की निधत्ति अवस्था कहलाती है। कर्म की निकाचितकरण अवस्था कहते हैं :__सत्ता में रहे हुए ज्ञानावरणादि कर्म, उनमें जिस कर्म के द्रव्य की जितने काल तक उदीरणा न हो, संक्रमण न हो और उत्कर्षण-अपकर्षण भी न हो; उतने समय तक उस कर्म की निकाचित अवस्था कहलाती है। ____ जो कर्म जैसी स्थिति-अनुभाग को लिये आत्मा के शुभाशुभ भावों द्वारा बंधा है, वैसे ही अत्यन्त दृढ़ है; निकाचित अवस्था रूप होकर रहता है। उसकी जब तक उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण ये चारों करण करने के लिये आत्मा के परिणाम असमर्थ हों, उतने काल तक उस कर्म की निकाचित अवस्था जानना।
इसप्रकार ये कर्म की दश अवस्थायें होती हैं। उनमे भी जीव के ---- भाव ही कारण हैं।