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आगमगर्भित प्रश्नोत्तर (उदयकरण) अ.३
आगमगर्भित प्रश्नोत्तर १. प्रश्न :- उदय किसे कहते हैं? उत्तर :- स्थिति पूरी होने पर कर्म के फल देने को उदय कहते हैं। २. प्रश्न :- उदय के कितने भेद हैं?
उत्तर :- चार भेद हैं - प्रकृति उदय, प्रदेश उदय, स्थिति उदय और अनुभाग उदय।
मूल प्रकृति अथवा उत्तर प्रकृति का उदय आना प्रकृति उदय है। उदय रूप प्रकृति के परमाणुओं का फलोन्मुख होना प्रदेश उदय है, स्थिति का उदय होना स्थिति उदय है और अनुभाग का उदय होना अनुभाग उदय है।
३. प्रश्न :- कर्मों की उदय योग्य प्रकृतियाँ कितनी हैं?
उत्तर :- ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों की क्रम से ज्ञानावरण कर्म ५ + दर्शनावरण कर्म की ९ + वेदनीय कर्म की २ + मोहनीय कर्म की २८ + आयुकर्म की ४ + नामकर्म की ६७ + गोत्रकर्म की २ + अंतराय कर्म की ५ = १२२ प्रकृतियाँ उदय योग्य होती हैं। ४. प्रश्न : उदयकरण का स्वरूप क्या है? १. कर्म अपने फलदानकाल में 'उदय' संज्ञा को प्राप्त होता है। २. जीव को फल देने रूप अवस्था विशेष से युक्त कर्म स्कन्ध 'उदय'
इस संज्ञा से व्यवहृत होता है। ३. जो कर्मस्कन्ध अपकर्षण, उत्कर्षणादि प्रयोग बिना स्थिति-क्षय
को प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं, उन कर्मस्कन्धों की
'उदय' यह संज्ञा है। (धवला ६/पृष्ठ-२१३) ४. यथाकाल उत्पन्न हुए कर्म के विपाक का नाम 'कर्मोदय' है। ५. कर्मोदय का नाम 'उदय' है। (ज. धवला १०/२)
६. कर्मफल का वेदन उदय कहलाता है। ७. कर्मों का अपने काल के आने पर फल देने रूप होकर खिरने को
सन्मुख होना, सो 'उदय' है। लब्धिसार; पीठिका (फूलचन्दजी) ८. एक समय में एक उदययोग्य निषेक ही उदय में आता है, अतः
उस उदीयमान निषेक के उदय में आकर फल देने पर सत्तारूप स्थिति में से एक समय घटता है, अतः एक समय मात्र स्थिति
का उदय प्रति समय आता है; यह सामान्य कथन है। ९. कर्मोदय के समय में ही अनुभाग का उदय होना अनुभाग-उदय है। १०. प्रत्येक समय में उदय आने योग्य परमाणुओं में अर्थात् एक स्थिति
निषेक में अनुभाग सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणाएँ
व स्पर्धक; सभी होते हैं। ११. कर्मोदय के समय में उदीयमान एक निषेक में जितने परमाणु का
उदय होता है, उसे प्रदेश उदय कहते हैं। ५. प्रश्न : उदय का कार्य क्या है? उत्तर : १.सातावेदनीय को सकल कर्मों में शुभ अर्थात् प्रशस्ततम कर्म
माना है। (ध. १२/पृ. ४५-४६) २. यह प्राणी रूपवान् हो या ना हो, परन्तु जब लोगों को प्यारा लगता
है तो समझना चाहिए कि उसके सुभग नामकर्म का उदय है।' ३. असाता वेदनीय कर्म के तीव्र उदय व उदीरणा से जीव को नियम
से भूख लगती है। (गो. जी. १३५) ४. खाये गये अन्नपान को पचाने का कारण, तैजसशरीर नामकर्म के
उदय से उत्पन्न तैजसशरीर भी है। (ध. १४/३२८) ५. साधु आदि के लिए योग्य दानादि देने में बाधा आने पर समझना
चाहिए कि उस समय जीव के दानान्तराय कर्म का उदय है।
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