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बंधकरण आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर अ.१
दशकरण चर्चा ज्ञानी जीव को भी अपनी कमजोरी से अर्थात् विद्यमान पुरुषार्थ की कमी से अथवा जीवन में विद्यमान कषाय के अनुसार विपरीत परिस्थिति में यथायोग्य दुःख भी होता है। प्रथमानुयोग के शास्त्रों में तद्भव मोक्षगामी सनत्कुमार चक्रवर्ती, बलभद्र रामचन्द्र आदि जीवों की दुःखद अवस्था जानने को मिलती है।
अनेक भावलिंगी मुनिराजों को भी पापोदय से उपसर्ग देखे जाते हैं, यह भी शास्त्राधार से जानते हैं। इन ज्ञानी मोक्षमार्ग के साधकों को भी कर्म के आबाधाकाल का ज्ञान अपनी भूमिका अनुसार होनेवाली आकुलता का अभाव करने के लिए अथवा आकुलता कम करने के लिए उपयोगी तो होता ही है। कर्मसंबंधी वस्तुस्वरूप के यथार्थ ज्ञान से तो जीव मात्र को लाभ ही लाभ होता है।
१२. प्रश्न :- बंधकरण के प्रश्नोत्तर में एक वाक्य है - "बंध अवस्था को प्राप्त कर्म, (तत्काल) फल नहीं दे सकता;" इसका भाव क्या है? कर्म, बंधते ही फल क्यों नहीं देता? स्पष्ट करें।
उत्तर :- जिस कर्म का बंध अभी हुआ है - हो रहा है; वह कर्म उसी समय फल नहीं दे सकता।
जिसप्रकार बीज बोते ही वह बीज वृक्षरूप से परिणमित नहीं होता और फल भी नहीं देता। बीज बोना और फल मिलना - इनमें जैसा काल-भेद आवश्यक है, उसी प्रकार - १. पहले कर्म का बंध होता है। २. कर्म बंधते समय में ही अथवा अगले समय से उस कर्म को सत्त्व नाम प्राप्त होता है। ३. जब सत्ता में स्थित कर्म का आबाधा काल व्यतीत होकर कर्म का उदयकाल आयेगा तो ही कर्म जीव से अलग होते समय अर्थात् उदय के समय में ही जीव को फल देता है।
अति संक्षेप में कहें तो कर्म के फल देने की व्यवस्था का यह क्रम है।
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यदि (आप यह चाहते हो कि) कर्म का बंध होते ही उसका फल मिलने लगे तो अनेक आपत्तियाँ आयेंगी -
१. जो व्यवस्थित व्यवस्था है, वह भंग होगी।
२. जिस समय नया कर्म का बंध हो रहा है, उसी समय नया कर्म फल देगा तो जिस कर्म का क्रम से स्वयमेव फल देने का उदयकाल आया है, उसका क्या होगा? वह फल दिए बिना कैसे रहेगा?
३. बंध में तथा उदय में आने वाले कर्मों में क्या टकराव होगा? क्योंकि दोनों का समय एक ही होने से कौन कितना और कैसा फल दे सकेगा? इसलिए व्यवस्थित व्यवस्था को स्वीकारने में ही समझदारी है।
जैसे कोई भी जीव मनुष्यरूप से जन्म लेता है तो कम से कम एक अंतर्महर्त तो (माँ के पेट में ही सही) जीवित तो रहेगा ही। आप जन्म का और मरण का समय एक ही मानोगे तो नहीं चलेगा। जिस समय में जो जन्मेगा, वह उसी समय कैसे मरेगा? कर्म के बंध का अर्थ है - कर्म का जन्म होना है और कर्म के उदय का अर्थ है - कर्म का मरना।
कर्म बंधते समय ही हठपूर्वक कर्म का उदय मानने का प्रसंग आयेगा तो यह विषय आगम सम्मत नहीं है।
४. कर्म की आबाधा का अभाव मानना अनिवार्य हो जायेगा।
५. कर्म बंध के साथ कर्म की सत्ता (सत्त्व) बनती है, वह भी नहीं बनेगी। इसका अर्थ कर्म की सत्ता के अभाव की भी आपत्ति आयेगी।
६. उदय तो सत्ता समाप्त होने पर होता है। यदि कर्म की सत्ता ही नहीं रही तो उदय कहाँ से आयेगा? कैसे आयेगा?
७. उदय ही नहीं आयेगा तो उदय के माध्यम से होनेवाली कर्म की उदीरणा कैसी होगी?
८. यदि कर्म की सत्ता नहीं मानोगे तो कर्म का उत्कर्षण (कर्म की ... स्थिति और अनुभाग बढ़ने का कार्य) कैसे होगा?
imalak sD.Kailabibara