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आत्मा ही परमात्मा है
है, जेब कट जाती है, बाल-बच्चे बिगड़ जाते हैं । भाई, हर काम में ध्यान तो रखना ही पड़ता है और हम बराबर रखते भी हैं, जगत में इस प्रकार की कोई भूल नहीं करते कि जिससे हमारा कोई काम बिगड़ जावे ।
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मूलतः प्रश्न ध्यान का नहीं, उस ध्यान का है; जिससे हमें सुख और शान्ति की प्राप्ति हो, दुःखों का अन्त हो । दुःखों का अन्त करने वाला और असली सुख-शान्ति प्राप्त करानेवाला ध्यान आत्मध्यान ही है । अतः सवाल ध्यान का नहीं, आत्मध्यान का है, निज भगवान आत्मा के ध्यान का है, जिसके बिना हम सब अनन्त दुःखी हैं, भवसागर में भटक रहे हैं, दर-दर की ठोकरें खाते फिर रहे हैं।
त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा के दर्शन - ज्ञान पूर्वक जो ध्यान होता है; वह सहज होता है, उसमें अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती, पर जो ध्यान आत्मदर्शन-ज्ञान बिना मात्र बाहरी अभ्यास से किया जाता है, एक तो वह वास्तविक ध्यान होता ही नहीं, दूसरे उसमें बाहरी क्रिया भी निर्दोष नहीं हो सकती ।
जब एक बालिका किसी नाटक में पत्नी का पाठ करती है तो महीनों अभ्यास (रियर्सल) करना पड़ता है । महीनों के अभ्यास के बाद भी उसके अभिनय में वह बात नहीं आ पाती जो असली पत्नी के व्यवहार में होती है, कहीं न कहीं चूक हो ही जाती है; किन्तु जब वही बालिका वास्तविक पत्नी बनती है तो बिना अभ्यास के ही सब कुछ सहज हो जाता है, उसके व्यवहार में कहीं कोई चूक नहीं होती, कृत्रिमता भी दिखाई नहीं देती; क्योंकि उसका वह व्यवहार अन्दर से बाहर आया हुआ होता है ।
आत्मध्यान करने के पूर्व उस आत्मा का स्वरूप समझना अत्यन्त आवश्यक है, जिसका ध्यान करना है, जो ध्येय है । रंग, राग और भेद से भिन्न ज्ञानानन्द स्वभावी निज भगवान आत्मा ही एकमात्र ध्येय है, ध्यान करने