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________________ आत्मा ही है शरण 66 अब हम जरा विचार करें कि आखिर वे अपने साधु-जीवन में गहन-वन एवं पर्वतीय प्रदेशों में ही क्यों रहे ? इसीलिए न कि वे ध्यान के लिए एकान्त चाहते थे । भाई, ध्यान एकान्त में ही होता है, भीड़-भाड़ में नहीं। सम्मेदशिखर पर तीर्थकरों के निर्माणस्थलों (टोको) को जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि वे ऐसे उच्चतम शिखर हैं कि जिनपर दो आदमी भी एकसाथ ढंग से बैठ भी नहीं सकते । इससे प्रतीत होता है कि वे ऐसे स्थान पर नहीं बैठना चाहते कि जहाँ बगल में आकर कोई और बैठ जाय । यदि अगल-बगल में कोई बैठा होगा तो उससे वार्तालाप का प्रसंग बन सकता है। जहाँ अनेक आदमी आस-पास होंगे तो बातें तो होंगी ही । यही कारण है कि उन्होंने ऐसा स्थान चुना कि दूसरा व्यक्ति पास में बैठ ही न सके । __इसीप्रकार गर्मियों में भरी दोपहरी में भयंकर धूप में बैठकर ध्यान भी वे इसीलिए करते थे कि इतनी धूप में वहाँ आदमी तो क्या पशु-पक्षी भी आस-पास नहीं आयेगा तो उनका आत्मध्यान भी निर्विघ्न होगा । यदि धूपकाल में ध्यान के लिए वृक्ष की छाया में बैठते तो वहाँ यदि आदमी नहीं भी पहुँचते तो पशु-पक्षी तो पहुँच ही जाते । ध्यान में विघ्न पड़ने की संभावना को देखकर ही हमारे मुनिराज छाया में न बैठकर धूप में बैठते हैं। धूप में बैठने से कर्म खिरते हों – ऐसी कोई बात नहीं है । ___इन सब बातों का एक ही तात्पर्य है कि ध्यान के लिए एकान्त चाहिए, भीड़ नहीं । ___ ध्यान के अभ्यास की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि ध्यान का अभ्यास तो हमें है ही । ध्यान के बिना तो हम एक समय भी नहीं रहते हैं । दुकानदार ग्राहकों का, डॉक्टर मरीज का, वकील मुवक्किल का, प्रेमी प्रेमिका का, पत्नी पति का, माँ बेटे का, बेटा माँ का निरन्तर ध्यान करते ही हैं। ध्यान के बिना तो दुनिया का कोई काम ही संभव नहीं होता । यदि ध्यान न रखा जाय तो दूध उबल जाता है, रोटी जल जाती है, गाड़ी चूक जाती
SR No.009440
Book TitleAatma hi hai Sharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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