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आत्मा ही परमात्मा है
आत्मा के ध्यान से ही प्राप्त किया है । अतः ध्यान करने के पूर्व हमें परमध्येयरूप निज भगवान आत्मा का स्वरूप भलीभांति समझना चाहिए, क्योंकि ध्येय का स्वरूप स्पष्ट हुए बिना ध्यान संभव नहीं है ।
हमारे कुछ धर्मप्रेमी भाई ध्यान के अभ्यास की बात करते हैं, ध्यान की कक्षाएँ लगाने की बात करते हैं, ध्यान के शिविर लगाने की बात करते हैं, ध्यान के सामूहिक प्रयोग करने की बात करते हैं, पर भाई, ध्यान तो एकान्त में होता है और शिविर, सामूहिक प्रयोग और कक्षाओं में एकान्त संभव नहीं है; शिविर, कक्षा और समूह स्वयं भीड़ हैं ।
हमारे ऋषियों-मुनियों ने, वीतरागी सन्तों ने, तीर्थंकरों ने तो घरबार छोड़कर गहन वनों में पर्वतों की चोटियों पर जाकर एकान्त में ध्यान किया था और हम वातानुकूलित सभागारों में डनलप की नरम-नरम कुर्सियों पर सपत्नीक बैठकर हजारों व्यक्तियों की भीड़ में किसी के निर्देश सुनते हुए ध्यान करना चाहते हैं । क्या हो गया है हमें और हम कहाँ से कहाँ पहुंच गये हैं ? ___इस सन्दर्भ में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि श्रमण-संस्कृति के सभी तीर्थ पर्वतों पर हैं, जंगलों में हैं। जबकि वैष्णव-तीर्थ गंगा के किनारे या सागरतटों पर मनोरम स्थानों पर अवस्थित हैं । सुरम्यस्थानों पर अवस्थित होने से वहाँ यात्रियों को सभी सुविधाएँ सहज उपलब्ध हो जाती हैं, मन्दिरों का निर्माण भी अल्पमूल्य में हो जाता है, जबकि सम्मेदशिखर जैसे पर्वतीय स्थानों पर मन्दिर आदि बनाने में उससे कई गुना खर्च होता है। __ आखिर विकट पर्वतीय स्थानों पर हमारे तीर्थ होने का रहस्य क्या है ? इस बात पर जब गहराई से विचार करते हैं तो एक बात स्पष्ट होती है कि हमारे सभी तीर्थंकरों और वीतरागी सन्तों ने ध्यान के लिए गहन जंगलों और पर्वतों की चोटियों को ही चुना, उन्होंने अपना सम्पूर्ण साधु-जीवन गहन वनों और पर्वतों के उच्चतम शिखरों पर ही बिताया । जहाँ वे रहे, .. वही स्थान हमारे तीर्थ बन गये ।