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सुखी होने का सच्चा उपाय
एकबार एक दूसरी पड़ोसिन ने बड़े ही संकोच के साथ कहा
"अम्माजी! मेरे मन में एक बात बहुत दिनों से आ रही है, आप नाराज न हों तो कहूँ ? बात यह है कि यह नौकर शकल से और अकल से सब बातों में अपना पप्पू जैसा ही लगता है । वैसा ही गोरा-भूरा, वैसे ही घुघराले बाल; सब-कुछ वैसा ही तो है, कुछ भी तो अन्तर नहीं और यदि आज वह होता तो होता भी इतना ही बड़ा ।" ।
उसकी बात सुनकर सेठानीजी उल्लसित हो उठीं, उनके लाड़ले बेटे की चर्चा जो हो रही थी, कहने लगीं -"लगता तो मुझे भी ऐसा ही है। इसे देखकर मुझे अपने बेटे की और अधिक याद आ जाती है । ऐसा लगता है, जैसे यह मेरा ही बेटा हो ।"
सेठानी की बात सुनकर उत्साहित होती हुई पड़ोसिन बोली -
"अम्माजी ! अपने पप्पू को खोये आज आठ वर्ष हो गये हैं, अबतक तो मिला नहीं; और न अब भी मिलने की कोई आशा है । उसके वियोग में कबतक दुःखी होती रहोगी ? मेरी बात मानो तो आप इसे ही गोद क्यों नहीं ले लेती ?"
उसने इतना ही कहा था कि सेठानी तमतमा उठी - "क्या बकती है ? न मालूम किस कुजात का होगा यह ?"
सेठानी के इस व्यवहार का एकमात्र कारण बेटे में अपनेपन का अभाव ही तो है । वेसे तो वह बेटा उसी का है, पर उसमें अपनापन नहीं होने से उसके प्रति व्यवहार बदलता नहीं है ।
अपना होने से क्या होता है ? जबतक अपनापन न हो, तबतक अपने होने का कोई लाभ नहीं मिलता । यहाँ अपने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण अपनापन है ।