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आत्मा
ही है शरण
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में चार लगेंगे, चालीस रुपये रोज का खर्च है न ? हम तो चार सौ रुपये रोज खर्च कर सकते हैं, व्यर्थ में ही पिताजी का पेट क्यों चिराया जाय ?" ___ डॉक्टर कहने लगा - "भाई, यदि ऐसा ही करते रहे तो पिताजी दोचार दिन में ही परलोक सिधार जायेंगे । यह कोई रोग का इलाज थोड़े ही है, यह तो मात्र दर्द की दवा है । इससे बीमारी ठीक होनेवाली नहीं है ।" ___ मरीज का पुत्र झुंझलाते हुए बोला – “यदि इससे बीमारी ठीक नहीं होती है तो फिर आपने यह दवा दी ही क्यों है ?" ___ डॉक्टर ने प्रेम से समझाते हुए कहा - "भाई, दर्द की दवा की भी उपयोगिता है । जबतक ऑपरेशन की व्यवस्था नहीं हो पाती, तबतक मरीज तड़फता न रहे और आप लोग भी मरीज की ओर से निश्चिन्त होकर ऑपरेशन की व्यवस्था में निरापद होकर लग सकें - इसलिए यह इन्जेक्शन लगाया जाता है । इस मर्ज का असली इलाज तो ऑपरेशन ही है ।" ___ इसीप्रकार भूख-प्यास आदि लगने पर रोटी खा लेना, पानी पी लेना अस्थाई उपचार है, स्थाई इलाज नहीं । हम अनादि काल से अपने दुःखों को दूर करने के लिए यही अस्थाई इलाज करते आ रहे हैं । इनसे क्षणिक आराम तो मिलता है, पर स्थाई लाभ नहीं होता ।
जिसप्रकार माफिया के इन्जेक्शन की उपयोगिता ऑपरेशन की तैयारी में संलग्न होने में ही है, उसीप्रकार भूख-प्यास लगने पर शुद्ध-सात्विक भोजन कर लेने से जो सीमित निराकुलता प्राप्त होती है, उस निराकुलता के समय में इन दुःखों के मेटने के स्थाई इलाज की शोध-खोज में लगना ही भोजनादि लेने की सच्ची उपयोगिता है । पर आज हमारी तो यह स्थिति है कि एकबार भोजन कर लेने पर थोड़ी-बहुत निराकुलता प्राप्त होती है तो दुबारा के भोजन जुटाने में लग जाते हैं।