________________
आत्मा ही है शरण
34
२. दुःख से बचना चाहते हैं । ३. दुःख से बचने का निरन्तर प्रयत्न भी करते हैं ।
४. फिर भी आजतक दुःख दूर नहीं हुआ । - यह बात सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है कि हम सब दुःखी हैं; क्योंकि हम सब निरन्तर ही अपने को दुःखी अनुभव कर रहे हैं । भले ही पत्र के आरम्भ में "अत्र कुशलं तत्रास्तु" लिखते हों, पर अन्तर में अच्छी तरह जानते हैं कि न तो यहाँ ही कुशलता है और न वहाँ कुशलता होने की संभावना है । पर यह सब तो इसलिये लिखते हैं कि जब हमें मास्टरजी ने पत्र लिखना सिखाया था तो बताया था कि सबसे पहले यह लिखना । हृदय की बात तो हम इसके बाद लिखते हैं, जिसमें लिखा होता है कि पिताजी की तबीयत जब से बिगड़ी, सुधरने का नाम ही नहीं लेती है; माँ के घुटनों का दर्द भी वैसा ही बना हुआ है और अब मेरी कमर में भी दर्द रहने लगा है ।
दुःख से बचना तो सभी चाहते हैं, पर मात्र चाहने से क्या होता है ? उसके लिए कुछ प्रयत्न भी होना चाहिए । सुबह से शाम तक हमारे जितने भी कार्य देखने में आते हैं, वे सभी दुःख दूर करने के लिए ही तो होते हैं ।
प्रातः उठते हैं तो तत्काल निबटने जाते हैं । यदि पेट खाली हो जाय तो बहुत आराम अनुभव करते हैं, पर तत्काल पेट भरने के उपक्रम में लग जाते हैं । यद्यपि हम सुखी होने के लिए ही पेट खाली करते हैं और सुखी होने के लिए ही भरते भी हैं, तथापि न खाली पेट चैन पड़ती है
और न भरे पेट । __ इसीप्रकार जब बैठे-बैठे थक जाते हैं तो चलने-फिरने लगते हैं
और जब चलते-फिरते थक जाते हैं तो फिर बैठ जाते हैं, लेट जाते हैं। पर जब लेटे-लेटे थक जाते हैं तो फिर बैठ जाते हैं, चलने