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आत्मा ही है शरण
में सम्मिलित एक भाई अनन्त कोरड़िया का है, जिसे उन्होंने दो माह बाद लिखा है ।
"इसबार कैम्प में आपसे अध्यात्म और स्वाध्याय के विषय में जो सुनने को मिला, उसे हम सब अकसर मिलकर खूब आनन्द से याद करके ताजा करते हैं और हृदय में एक अजीब आनन्द का अनुभव करते रहते हैं । आपके प्रवचन के समय आप अपने ज्ञान अनुभव और तत्त्व या अध्यात्म में खुद के अन्तःकरण का आनन्द हम लोगों को बाँटने का चाव महसूस करने मात्र से मेरा हृदय आनन्दविभोर हो उठता था । काश आपके चरणों में बैठकर हर समय कुछ न कुछ सुनने-समझने का मौका मिलता रहता; खासतौर से आत्मा, स्वानुभव और ध्यान के बारे में सुनने और समझने की और स्वानुभव पाने की हृदय में जो तड़फन हुई है, उसको कैसे शान्त करें? खैर छोटे मुँह से बड़ी बात न हो जाय - इस डर से न तो पत्र ही लिखा और न ज्यादा बात ही कर पाया, अगलीबार देखेंगे ।
स्वानुभव के अधिकार के योग्य बनने को सबसे पहले स्वाध्याय-मननचिन्तन करके ध्यान का सतत् अभ्यास करने तथा समाधि में कैसे उतरा जाय । उसी की खोज में ग्रन्थों के पढ़ने में, खोजने की कोशिश में लगा रहता हूँ । शायद गुरुजी का सतत मार्गदर्शन हो तो बहुत-बहुत फर्क पड़ता । खैर अब तो पूज्य कानजी स्वामी का प्रवचन संग्रह, वृहदद्रव्यसंग्रह, ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थ ये ही मेरे गुरु हैं । तत्त्वार्थसूत्र पढ़कर अब मैंने प्रसमरति मंगाया है । अब तो ज्ञानार्णव का स्वाध्याय चाव से पूरा करना है । पू. कानजी स्वामी के प्रवचन-संग्रह पढ़ने से हृदय आनंदविभोर हो उठा। __ हम लोगों के कुछ मित्र परिवार (ग्रोगरी, चौकसी आदि) अध्यात्म के इतने उत्सुक हो चुके हैं कि समय मिलते ही निवृत्तिमय जीवन, अध्यात्म, स्वाध्याय और ध्यान में लगाने के लिए समय और स्थान की खोज में भारत आयेंगे । अब दूसरी तरफ से अन्तःकरण पूरा मर चुका है ।"