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आत्मा ही है शरण
भगवान ने कब कहा है कि तुम मुझे छत्र चढ़ाओ तो मैं तुम्हारा बच्चा ठीक कर दूँगा । ये सब अज्ञान की बातें हैं, भक्ति की नहीं । असली भक्ति तो भगवान के गुणों में अनुराग का नाम है । कहा भी है, 'गुणेष्वनुरागः भक्तिः' ।
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गुणों में अनुराग तो निःस्वार्थभाव से ही होता है । सच्चे भक्त भी निःस्वार्थ भाव से ही भक्ति करते हैं । निःस्वार्थभाव की भक्ति वैज्ञानिक और स्वाभाविक भी है । इसे हम क्रिकेट के खिलाड़ी के उदाहरण से भली-भाँति समझ सकते हैं ।
एक व्यक्ति क्रिकेट का विश्व स्तर का बल्लेबाज बनना चाहता है । तदर्थ अभ्यास करने के लिए एक प्रशिक्षक भी रखता है, जो जेठ की दुपहरी की कड़ी धूप में साथ-साथ रहकर उसे अभ्यास कराता है; इसकारण वह उसकी समुचित विनय भी करता है; तथापि उसका चित्र अपने कमरे में नहीं लगाता है । चित्र तो वह अपने घर में विश्वप्रसिद्ध वल्लेबाजों के ही लगाता है, गावस्कर और कपिलदेव के ही लगाता है । यद्यपि यह सत्य है कि प्रत्यक्ष उपकारी तो वह प्रशिक्षक ही है, पर उसका आदर्श वह प्रशिक्षक नहीं, विश्वस्तरीय बल्लेबाज हैं । उसका आदर्श वह बल्लेबाज कैसे हो सकता है, जिसका नाम रणजी ट्राफी में भी नहीं आया है, जिले की टीम में भी नहीं आया है ?
यद्यपि विश्वप्रसिद्ध बल्लेबाजों से उसका प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं है, वे उसे कुछ सिखाते नहीं हैं, बताते नहीं हैं, सिखा सकते भी नहीं हैं, बता सकते भी नहीं हैं; उनसे उनका पत्र-व्यवहार भी नहीं है, उसने उन्हें साक्षात् देखा तक नहीं है, मात्र टी.वी. पर ही देखा है; तथापि उसके हृदय में बिना किसी अपेक्षा के उनके प्रति उत्कृष्ट कोटि का बहुमान का भाव बना रहता है; क्योंकि वे उसके आदर्श हैं, उसे उन जैसा ही बनना है ।
क्या उस व्यक्ति का विश्वस्तरीय बल्लेबाजों के प्रति वह भक्ति का भाव स्वाभाविक नहीं है, वैज्ञानिक नहीं है, सहज नहीं है ? यदि है तो फिर