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जैनभक्ति और ध्यान
निःस्वार्थभाव से की गई जैनियों की भक्ति सहज क्यों नहीं है, स्वाभाविक क्यों नहीं है, वैज्ञानिक क्यों नहीं है ? क्या किसी लौकिक कामना से की गई भक्ति ही स्वाभाविक होती है, सहज होती है ? ___जैनदर्शन के अनुसार भगवान की भक्ति का उद्देश्य जब उन जैसा बनना ही है, तब उसके प्रति सहजभाव से भक्ति का भाव होना भी अस्वाभाविक कैसे हो सकता है ? जिनसे हमारा प्रत्यक्ष सम्पर्क है, जो हमें तत्त्वज्ञान सिखाते हैं या अन्यप्रकार से हमारा उपकार करते हैं; उनके प्रति किए गए विनयभाव के पीछे कदाचित् हमारा स्वार्थभाव भी रह सकता है; पर जिनसे हमारा कभी सम्पर्क भी न रहा हो, जो हमारा कोई कार्य भी न करते हों; उनके प्रति विनयभाव तो एकदम निःस्वार्थभाव से ही होगा न ? यही कारण है कि जैनियों की भक्ति निःस्वार्थभाव की ही भक्ति होती है और वह सहज ही होती है, स्वाभाविक ही है; इसमें कोई अस्वाभाविकता नहीं है । ___ जैनियों के भगवान विषय-कषाय और उसकी पोषक सामग्री तो देते ही नहीं, वे तो अलौकिक सुख और शान्ति भी नहीं देते; मात्र सच्ची सुख-शान्ति प्राप्त करने का उपाय बता देते हैं । यह भी एक अद्भुत बात है कि जैनियों के भगवान भगवान बनने का उपाय बताते हैं । जगत में ऐसा कोई अन्य दर्शन हो तो बताओ कि जिसमें भगवान अपने अनुयायियों को स्वयं के समान ही भगवान बनने का मार्ग बताते हों । भगवान में लीन हो जाने की बात, उनकी कृपा प्राप्त करने की बात तो सभी करते हैं, पर तुम स्वभाव से तो स्वयं भगवान हो ही और पर्याय में भी भगवान बन सकते हो - यह बात मात्र जैनियों के भगवान ही कहते हैं; साथ में वे भगवान बनने की विधि भी बताते हैं ।। __भगवान कहते हैं कि भाई तुम किसी अन्य परमेश्वर के प्रतिबिम्ब मात्र नहीं हो, तुम तो स्वयं परमेश्वर हो; तुम किसी के अंश भी नहीं, तुम तो स्वयं परिपूर्ण भगवान हो; तुम किसी की परिछाई भी नहीं हो, तुम स्वयं