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जनभक्ति और ध्यान
जैनियों के भगवान तो वीतरागभाव से सहज ज्ञाता दृष्टा होते हैं । वे जानते सबकुछ हैं, पर करते कुछ भी नहीं । उन्हें कुछ करने का विकल्प भी नहीं उठता, यदि कुछ करने का विकल्प उठे तो वे भगवान ही नहीं हैं। हित का उपदेश भी सर्वाग से खिरने वाली उनकी दिव्यध्वनि में सहज ही प्रस्फुटित होता है, वे उसमें भी कुछ करते - धरते नहीं हैं । यही है जैनियों के भगवान का सच्चा स्वरूप पर आज हम जैनी भी उनके इस सच्चे स्वरूप को भली-भाँति कहाँ जानते हैं ? कर्त्तावादी दर्शनों की देखा-देखी हम भी उनकी स्तुति कर्ता-धर्ता के रूप में ही करने लगे हैं । यह सब हमारा अज्ञान ही है । जिनवाणी में भी यदि कहीं इसप्रकार के कथन आये हों तो उन्हें भी व्यवहार का कथन समझना चाहिए । उन्हें वास्तविक कथन मानकर अपनी श्रद्धा को विचलित नहीं करना चाहिए ।
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जब जैनियों के भगवान भक्तों का कुछ करते ही नहीं हैं तो फिर उनकी भक्ति लोग करेंगे ही क्यों ? आप निःस्वार्थभाव की भक्ति की बात करते हैं, पर आज निःस्वार्थभाव की भक्ति करनेवाले कितने हैं ? और निःस्वार्थभाव की भक्ति की बात स्वाभविक भी तो नहीं है, वैज्ञानिक भी तो नहीं है; क्योंकि बिना प्रयोजन तो लोक में कोई कुछ करता देखा ही नहीं जाता ।
अरे भाई ! स्वार्थपूर्ति के लिए की गई भक्ति भी कोई भक्ति है, वह तो व्यापार है; व्यापार भी हलके स्तर का । लोग भगवान के पास जाते हैं और कहते हैं कि यदि मेरे बच्चों की तबियत ठीक हो गई तो १०१ रुपये का छत्र चढ़ाऊँगा । क्या यह भक्ति है ? जब आप डॉक्टर के पास जाते हैं, तब क्या डॉक्टर से भी ऐसा ही कहते हैं कि आपकी फीस या दवा की कीमत तब दूँगा कि जब मेरे बच्चे की तबियत ठीक हो जावेगी!
तुम्हारा तो भगवान पर डॉक्टर के बराबर भी भरोसा नहीं है । यदि होता तो काम हो जाने के बाद छत्र चढ़ाने की बात कहीं से आती ?