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आत्मा ही है शरण
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"कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचित कर्म कुर्वति ।
प्रभुस्तुल्य मनोवृत्तिः पार्श्वनाथः जिनोस्तु नः ॥ हे भगवान पार्श्वनाथ ! कमठ ने आप पर उपसर्ग किया और धरणेन्द्र ने रक्षा करने का भाव किया । उन्होंने अपनी-अपनी वृत्ति के अनुसार उचित ही कार्य किया; क्योकि कमठ को आपसे द्वेष था और धरणेन्द्र को राग;
और राग-द्वेष करने वालों की वृत्ति और प्रवृत्ति ऐसी ही होती है । पर हे भगवान आपकी मनोवृत्ति दोनों में समान ही रही; न तो आपने उपसर्ग करने वाले कमठ से द्वेष किया और न रक्षा के भाव करने वाले धरणेन्द्र से राग ही किया; दोनों पर समान रूप से समताभाव ही रखा; अतः आपको नमस्कार हो ।" ___ यहाँ यह बात कितनी स्पष्ट है कि आपने रक्षा करने वाले से राग नहीं किया और उपसर्ग करने वाले पर द्वेष नहीं किया; इसीकारण हम आपको नमस्कार करते हैं । यदि आप धरणेन्द्र से राग और कमठ से द्वेष करते तो हम आपको नमस्कार नहीं करते; क्योंकि ऐसा तो सभी संसारी जीव दिन-रात करते ही हैं और इसीकारण दुःखी भी हैं । यदि आप भी ऐसा ही करते तो आप में और उनमें क्या अन्तर रहता ?
देखो, कितना अन्तर है दोनों दृष्टिकोणों में । जहाँ एक ओर कर्त्तावादी दर्शनों में दुष्टों के दलन के लिए ही भगवान अवतरित होते हैं, भक्तों की रक्षा करने के लिए भगवान दौड़े-दौड़े फिरते हैं, 'भगवान भगत के वश में हैं - यह कहा जाता है; वहाँ अकर्तावादी जैनदर्शन में भगवान को पूर्ण वीतरागी रूप में ही पूजा जाता है । भक्तों का भला करना तो बहुत दूर, यदि वे उन्हें अनुराग की दृष्टि से देखें तो भी हम उन्हें भगवान मानने को तैयार नहीं हैं । इसीप्रकार दुष्टों का दलन करना तो बहुत दूर, यदि भगवान दुष्टों को द्वेष की नजर से देखें तो भी हम उन्हें भगवान मानने को तैयार नहीं हैं ।