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जैनभक्ति और ध्यान
जैन लोग भी पूजा-पाठ करते हैं, भक्ति करते हैं, उनके यहाँ भक्ति साहित्य भी है। इस सबका क्या औचित्य है ?
जैनदर्शन में निःस्वार्थ भाव की भक्ति है । उसमें किसी भी प्रकार की कामना को कोई स्थान प्राप्त नहीं है । जैनदर्शन के भगवान तो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं । वे किसी को कुछ देते नहीं हैं, मात्र सुखी होने का मार्ग बता देते हैं । जो व्यक्ति उनके बताये मार्ग पर चले, वह स्वयं भगवान बन जाता है । अतः जिनेन्द्र भगवान की भक्ति उन जैसा बनने की भावना से ही की जाती है । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण से स्पष्ट है ।
मोक्षमार्गस्य नेत्तारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ ___ जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्मरूपी पर्वतों के भेदन करने वाले हैं और विश्व के समस्त तत्त्वों को जानने वाले हैं, अर्थात् जो हितोपदेशी, वीतरागी
और सर्वज्ञ हैं; उक्त गुणों की प्राप्ति के लिए मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। __उक्त छन्द में भगवान के गुणों को स्मरण करते हुए मात्र भगवान बनने की भावना व्यक्त की गई है; भगवान से कुछ करने की प्रार्थना नहीं की गई है, न ही उनसे कुछ मांगा गया है । ___ जैनदर्शन में भगवान की वीतरागता पर सबसे अधिक बल दिया गया है। जब कोई आत्मा अरहंत बनता है तो सबसे पहले वह वीतरागी होता है, उसके बाद सर्वज्ञ और उसके भी बाद जब उसकी दिव्यध्वनि खिरती है, तब वह हितोपदेशी विशेषण को सार्थक करता है । इसतरह यह सिद्ध है कि वीतरागी हुए बिना सर्वज्ञता संभव नहीं है और वीतरागी-सर्वज्ञ हुए बिना हितोपदेशी होना संभव नहीं है ।
उक्त सन्दर्भ में भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति में लिखा गया निम्नांकित छन्द द्रष्टव्य है :