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आत्मा ही है शरण
के सर्वांग पर प्रकाश डालकर दर्शन करना ही आरती है। सास भी अपनी दुलारी बच्ची को सौंपने के पहले एक बार दीपक के प्रकाश में जमाई के हर अंग को अच्छी तरह देख लेना चाहती है। आरती उतारने के बहाने ही यह सब संभव है । हमारी उपासना की हर क्रिया के पीछे वैज्ञानिक कारण विद्यमान है। कोरा क्रियाकाण्ड कहकर हंसी उड़ाने की अपेक्षा उसकी गहराई में जाना आवश्यक है।
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शनि देवता की तेल से पूजन का भी एक रहस्य है। पहले आज के समान बिजली तो थी नहीं । चौराहों पर प्रकाश के अभाव में दुर्घटनाएँ बहुत होती थीं। अतः मौहल्ले वालों ने मिलकर चौराहे पर एक खम्बा बनाया और उस पर एक विशाल दीपक रखा। उसके चारों ओर लिख दिया - शनैश्चरधीरे चलो । चौराहों पर धीरे चलने के बोर्ड तो आज भी लगते हैं। दीपक जलने को तेल चाहिए, अतः व्यवस्था दी गई कि सभी लोग शनैश्चर वाले खम्भे पर अपने हिस्से का तेल डालें। पण्डितों ने लोगों को समझाया कि शनैश्चर की तेल से पूजा न होने पर दुर्घटनाएँ घट सकती हैं, तो क्या गलत था ? क्योंकि तेल के बिना प्रकाश न होगा और प्रकाश के अभाव में दुर्घटनाएँ अवश्यंभावी हैं ही।
आँगन की तुलसी को पानी की, चौराहे के दीपक को तेल की एवं गर्भगृह में विराजमान देवता के दर्शन के लिए दीपक तथा गर्भगृह की वायुशुद्धि के लिए धूप की आवश्यकता थी। इसी को लक्ष्य में रखकर ही तुलसी की पूजा जल से, शनि की तेल से और गर्भगृह में विराजमान देवता की पूजा दीप- धूप से करने का विधान किया गया।
जैन सेन्टरों में हुए कार्यक्रमों में वाशिंगटन में लगा शिविर उल्लेखनीय है। वहाँ प्रवचन, कक्षा एवं चर्चा सब कुछ मिलाकर चौदह घण्टे के कार्यक्रम हुए। बार-बार सुनने के लिए सभी कार्यक्रम टेप किये गये । भेद-विज्ञान, साततत्त्व, बारह भावना, जैनदर्शन की संक्षिप्त रूपरेखा जैसे विषयों पर गंभीर विवेचन, गहरा शिक्षण एवं ज्ञानवर्द्धक तत्त्वचर्चा हुई।