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आत्मा ही है शरण
पंचपरमेष्ठी हमारे लिए परमपूज्य हैं, प्रातः स्मरणीय हैं, वंदनीय हैं, अभिनंदनीय हैं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र साक्षात् मुक्ति का मार्ग हैं। हमें परमेष्ठी पद में स्थित होना है और सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय की आराधना ही पंचपरमेष्ठी पद में स्थित होना है । इसप्रकार हमारे जीवन में पंचपरमेष्ठी एवं रत्नत्रय का महत्त्वपूर्ण स्थान है । पर ये पंचपरमेष्ठी पद और रत्नत्रय धर्म सभी आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं । इन्हें प्राप्त करने के लिए निज भगवान आत्मा का ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान आवश्यक है । अतः यहाँ आत्मा की ही शरण में जाने की बात कही गई है।
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यहाँ एक प्रश्न संभव है कि शरण में जाने की बात तो दो द्रव्यों के बीच में ही संभव है, स्वयं का स्वयं की शरण में जाना किसप्रकार संभव है ?
अरे भाई ! निज भगवान आत्मा को जानना, पहिचानना और उसमें जमना - रमना ही आत्मा की शरण में जाना है । त्रिकालीध्रुव निज भगवान आत्मा को जानना और यह जानना कि 'यही मैं हूँ' निज भगवान आत्मा की सम्यग्ज्ञानरूप उपासना है, निज भगवान आत्मा की शरण में जाना है; तथा उसी त्रिकालीध्रुव निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करना 'ये ही मैं हूँ - ऐसी दृढ़ प्रतीति करना ही आत्मा की सम्यग्दर्शनरूप उपासना है, निज भगवान आत्मा की शरण में जाना है; त्रिकालीध्रुव निज भगवान आत्मा में लीन हो जाना, रम जाना, जम जाना, समा जाना, उसी का ध्यान करना, निज भगवान आत्मा की सम्यक्चारित्ररूप उपासना है, निज भगवान आत्मा की शरण में जाना है ।
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इसी बात को समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में समागत १५ वें कलश में इसप्रकार कहा है
"एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम् ॥