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आत्मा ही है शरण
का पद है; दोनों में ही माथे पर भार रहता है । जबतक माथे पर भार रहेगा, तबतक क्षपकश्रेणी मॉड़ना संभव नहीं है, क्षपकश्रेणी निर्भार व्यक्तियों को ही होती है ।
उक्त सम्पूर्ण विवेचन से सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि णमोकार महामंत्र में जो शरण की बात कही गई है, वह भी कुछ मांग नहीं है; अपितु बहुमान की बात ही है; तथापि पर की शरण की बात कही तो गई है न, पर आचार्य कुंदकुंद तो पर की शरण में जाने की बात ही नहीं करते। वे तो साफ-साफ कहते हैं :
"अरहंत सिद्धाचार्य पाठक, साधु हैं परमेष्ठी पण ।
सब आतमा की अवस्थाएँ, आतमा ही है शरण ॥" अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये सब हैं क्या ? आखिर एक आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं न ? एक निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही उत्पन्न हुई अवस्थाएँ हैं न ? तो फिर हम इनकी शरण में क्यों जावें, हम तो उस भगवान-आत्मा की ही शरण में जाते हैं, जिसकी ये अवस्थायें हैं, जिसके आश्रय से ये अवस्थायें उत्पन्न हुई हैं । सर्वाधिक महान, सर्वाधिक उपयोगी, ध्यान का ध्येय, श्रद्धान का श्रद्धेय एवं परमशुद्धनिश्चयनयरूप ज्ञान का ज्ञेय तो निज भगवान आत्मा ही है, उसकी शरण में जाने से ही मुक्ति के मार्ग का आरंभ होता है, मुक्तिमार्ग में गमन होता है और मुक्तिमहल में पहुंचना संभव होता है ।।
सिद्ध भगवान तो मुक्त ही हैं तथा अरहंत, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु मुक्तिमार्ग के पथिक हैं तथा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीनों की एकता मुक्तिमार्ग है । मुक्तिदशा, मुक्तिमार्ग के पथिकरूप साधकदशा तथा मुक्तिमार्ग रूप साधनदशा सभी आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं । ये सभी अवस्थायें निजभगवान आत्मा के आश्रय से ही उत्पन्न होती हैं । इसलिए निजभगवान आत्मा की शरण में जाना ही सुखी होने का एकमात्र उपाय है।