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आत्मा ही है शरण
तात्पर्य यह है कि आचार्य परमेष्ठी अपने ३६ मूलगुण के धारी तो होते ही हैं तथा साधुओं के २८ मूलगुण भी उनके होते ही हैं, किन्तु साधु मात्र २८ मूलगुणों के ही धारी होते हैं, उनके आचार्यों के ३६ मूलगुण नहीं होते ।
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बात यह है कि आचार्य साधु और आचार्य दोनों एक साथ हैं, पर साधु मात्र साधु ही है; अतः उनका समावेश आचार्य पद में संभव नहीं है ।
यदि कोई कहे कि एक ओर तो आप कहते हैं कि आचार्य और उपाध्यायों को मंगल, उत्तम और शरण में शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि ये पद मुक्तिमार्ग में आवश्यक नहीं हैं, साधक नहीं हैं, अपितु बाधक हैं और दूसरी ओर कहते हैं कि उन्हें साधु पद में शामिल कर लिया गया है। क्या ये परस्पर विरोधी बातें नहीं हैं ?
नहीं; क्योकि ये तो विभिन्न अपेक्षाओं का दिग्दर्शन हैं, इसमें कोई विरोधाभास नहीं है । दूसरी बात यह भी तो है कि जो आचार्यों को साधु पद में शामिल किया गया, वह उनके साधु पद के कारण ही किया गया है, आचार्यपद के कारण नहीं ।
अतः मुख्य बात तो यही है कि मुक्ति के मार्ग में अनावश्यक होने से आचार्य और उपाध्याय पद को गौण किया गया है । गजब की बात तो यह है कि आचार्यों और उपाध्यायों से दीक्षादि ली जाती है, उपदेश की प्राप्ति होती है, फिर भी उनकी शरण में जाने को तो गौण किया है और जिन सिद्ध व साधुपरमेष्ठी से कोई प्रत्यक्ष उपकार संभव नहीं होता, उनकी शरण चाही गई है । इससे भी यही प्रतीत होता है कि इसमें मोक्ष और मोक्षमार्ग के प्रति अति बहुमान व्यक्त करना ही मूल उद्देश्य है, शरण में जाने का अर्थ इससे अधिक कुछ नहीं । मुक्ति और मुक्तिमार्ग में अरहंत, सिद्ध और साधुपद तो आते हैं, पर आचार्य और उपाध्याय पद आना अनिवार्य नहीं है। आचार्य पद तो प्रशासन का पद है और उपाध्याय पद अध्यापन