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आत्मा ही है शरण
वाले मंगल, उत्तम और शरण बताने वाले पाठ के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण बात की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ ।
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णमोकार महामंत्र में तो पांचों ही परमेष्ठियों का स्मरण किया गया है, पर मंगल, उत्तम और शरण बताते समय आचार्य और उपाध्याय को छोड़ दिया है । क्या आप जानते हैं कि ऐसा क्यों किया गया है ?
मुक्ति प्राप्त करने के लिए साधु होना अनिवार्य है, अरहंत होना अनिवार्य है, सिद्ध होना भी अनिवार्य है, क्योकि सिद्ध होना ही तो मुक्ति प्राप्त करना है, पर मुक्त होने के लिए आचार्य और उपाध्याय होना अनिवार्य नहीं है । यही कारण है कि मंगल, उत्तम और शरण की चर्चा में उन्हें शामिल नहीं किया गया है ।
न केवल इतनी ही बात है कि मुक्ति के लिए आचार्यपद आवश्यक नहीं है, अपितु बात तो यहाँ तक है कि आचार्य जबतक आचार्यपद पर हैं, तवतक उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती । उनके अनेक साधु शिष्यों को केवलज्ञान हो जाता है, पर उन्हें नहीं होता । जब वे आचार्यपद छोड़कर सामान्य साधुपद धारण करते हैं और आत्मसन्मुख होते हैं, तभी केवलज्ञान होता है।
यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठियों को सर्वसाधुओं में शामिल कर लिया गया है, उन्हें छोड़ा नहीं गया है; तथापि उन्हें गौण तो किया ही गया है और गौण करने का एकमात्र कारण मुक्ति प्राप्त करने में उक्त पदों की कोई उपयोगिता नहीं होना ही है ।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि साधुओं में आचार्य उपाध्यायों को शामिल करने के स्थान पर आचार्यों में साधुओं को शामिल करना चाहिए क्योकि आचार्य बड़े हैं, साधुओं के भी गुरु हैं, उनके भी पूज्य हैं । अतः आचार्यों के नाम का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए था और साधुओं को उसमें शामिल कर लेना चाहिए था ।
अरे भाई, यहाँ छोटे-बड़े का सवाल नहीं है । बात यह है कि आचार्य परमेष्ठी साधु परमेष्ठी भी हैं ही, पर साधु परमेष्ठी आचार्य नहीं हैं ।