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आत्मा ही है शरण
स्वरूप की प्राप्ति के इच्छुक पुरुषों के लिए साध्य-साधक भाव के भेद से दो प्रकार से, इस ज्ञान के घनपिंड एक भगवान आत्मा की ही नित्य उपासना करने योग्य हैं ।"
यहाँ आचार्य महाराज उपदेश दे रहे हैं, आदेश दे रहे हैं कि हे आत्मार्थी पुरुषो ! आत्मा का कल्याण चाहने वाले सत्पुरुषो !! तुम निरन्तर ज्ञान के घनपिंड आनंद के रसकंद इस भगवान आत्मा की ही उपासना करो, आराधना करो; चाहे साध्यभाव से करो, चाहे साधकभाव से करो, पर एक निज भगवान आत्मा की ही उपासना करो । उपासना करने योग्य तो एकमात्र यह ज्ञान का घनपिंड और आनंद का रसकंद एक भगवान आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं । ___ यहाँ आत्मा की उपासना करने का तात्पर्य निज आत्मा की पूजा-भक्ति करने से नहीं है, स्तुति-वंदना करने से भी नहीं है, नमस्कारादि करने से भी नहीं है; अपितु उसे सही रूप में जानने से है, पहिचानने से है, उसका अनुभव करने से है, उसी में समा जाने से है; उसी का नित्य ध्यान करने से है, ध्यान रखने से है; उसको ही सर्वस्व मानने से है; उसी में पूर्णतः समर्पित हो जाने से है । यही निज भगवान आत्मा की उपासना की विधि है, आराधना की विधि है, साधना की विधि है ।
निज भगवान आत्मा की यह उपासना दो प्रकार से होती है :(१) साध्यभाव से और (२) साधकभाव से ।
चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक साधकदशा है और सिद्ध अवस्था साध्यदशा है । अथवा चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक साधकदशा है और अरहंत और सिद्ध दशा साध्यदशा है । पर्याय में पूर्णता की प्राप्ति हो जाना साध्यदशा है और आत्मोपलब्धि होकर पूर्णता की ओर अग्रसर होना साधकदशा है । अथवा आत्मा में उपयोग का केन्द्रित होना और फिर बाहर आ जाना - इसप्रकार बार-बार अन्दर जाना और बाहर