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आत्मा ही है शरण
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मधुकरभाई शाह बम्बई वाले शान्तिभाई जवेरी के छोटे भाई हैं । उनकी आध्यात्मिक रुचि बहुत अच्छी है, तात्विक अभ्यास भी अच्छा है । उन्होंने "जिनवरस्य नयचक्रम्" जैसे कठिन ग्रन्थ का स्वाध्याय चार बार आद्योपान्त कर लिया है । कहीं भी आते-जाते, घूमते-फिरते समय वे नयचक्र संबंधी चर्चा ही करते रहे । उनकी पत्नी, पुत्र, पुत्रवधु सभी आध्यात्मिक रुचि सम्पन्न हैं, सभी ने अत्यन्त रुचिपूर्वक लाभ लिया । आगामी वर्ष आने का भी बहुत-बहुत अनुरोध किया ।
इसप्रकार हांग-कांग में सबकुछ मिलाकर बहुत अच्छी धर्म-प्रभावना हुई।
जिस समय हम हांग-कांग में थे, उस समय चीन में छात्र आन्दोलन बड़े जोरों पर था और उसे नृसंशतापूर्वक कुचला जा रहा था । इसकारण हांग-कांग का भी वातावरण बहुत क्षुब्ध था; क्योंकि वहाँ के पंचानवे प्रतिशत नागरिक चीनी ही हैं । चीनी छात्र आन्दोलन के समर्थन एवं उनके दमनचक्र के विरोध में हांग-कांग में जुलूस निकाले जा रहे थे । सर्वत्र ही भय का वातावरण व्याप्त था; क्योंकि सन् १९९७ ई. में हांग-कांग भी चीन को हस्तान्तरित किया जाने वाला है । इसकारण सम्पन्न नागरिकों में विशेष अस्थिरता का वातावरण था ।
हांग-कांग से चलकर ७ जून, १९८९ ई. बुधवार को जापान के उसाका हवाई अड्डे पर पहुंचे, जहाँ से कार से कोवे नगर में गये । कोवे में हम जयन्तीभाई एच. शाह के घर पर ठहरे थे । जयन्तीभाई की तीव्र भावना के कारण ही जापान का कार्यक्रम बना था । क्रमबद्धपर्याय पर सुनने की इच्छा भी उनकी ही सर्वाधिक थी; उन्होंने प्रवचनों और चर्चा का भरपूर लाभ भी लिया । उनके सुपुत्र शैलेन्द्रभाई को क्रमबद्धपर्याय ने इतना अधिक आन्दोलित किया कि वे दो-तीन रात ढंग से सोये भी नहीं; इसी के विचार-मंथन में लगे रहे । __ अभी-अभी दशलक्षण महापर्व के अवसर पर बम्बई (मलाड़) में हमारा प्रवचन सुनने जयन्तीभाई आये थे तो बता रहे थे कि शैलेन्द्र तो आपकी