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धूम क्रमबद्धपर्याय की
मैं इस विषय पर सैकड़ों प्रवचन कर चुका हूँ, चर्चा तो निरन्तर होती ही रहती है; तथापि लोगों की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही है। लोग चाहते हैं कि मैं अधिक से अधिक इसी विषय पर प्रवचन करूँ, चर्चा में भी इसी से सम्बन्धित प्रश्न अधिक आते हैं ।
सन् १९८० ई. में सर्वप्रथम प्रकाशित मेरी लोकप्रिय कृति 'क्रमबद्धपर्याय' अबतक हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल और अंग्रेजी इन छह भाषाओं में लगभग पौन लाख प्रकाशित हो चुकी है, जन-जन तक पहुँच चुकी है। फिर भी प्रत्येक भाषा में उसकी माँग अभी भी निरन्तर बनी हुई है । ___ गूढतम विषय को प्रतिपादित करने वाली इस दार्शनिक कृति की इतनी लोकप्रियता भी लोगों के मानस का प्रतिबिम्ब है । इसके विरोध में भी एक-दो छोटी-मोटी पुस्तकें लिखी गई, पर वे हजार-पाँच सौ छपकर ही रह गई हैं । मैंने भी उन्हें देखा है, पर उनमें न तो सबल तर्क हैं, न प्रबल युक्तियाँ और न उपयुक्त आगम प्रमाण ही; यही कारण है कि वे जन-मानस को छू भी न सकीं।
यद्यपि मैं विगत छह वर्षों से देश-विदेश में निरन्तर भ्रमण करता रहा हूँ, तथापि मैं जहाँ भी गया, वहाँ मेरे पहले क्रमबद्धपर्याय पहुंच चुकी थी। इसवर्ष मैं जापान में पहली बार ही गया था, पर जाते ही मुझसे क्रमबद्धपर्याय पर प्रवचन करने का आग्रह किया गया, तथापि मैंने तीन दिन तक क्रमबद्धपर्याय पर प्रवचन नहीं किये । एक प्रवचन 'भगवान महावीर और उनकी अहिंसा' तथा चार प्रवचन 'भगवान आत्मा और उसकी प्राप्ति के उपायो' पर किये, जो बहुत सराहे गये; पर क्रमबद्धपर्याय की माँग निरन्तर बनी ही रही । ___ अन्त में उन्होंने जब मेरे से यह कहा कि हमने तो आपको क्रमबद्धपर्याय पर सुनने के लिए ही बुलाया है, तो मेरे आश्चर्य और आनन्द का पार