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जीवन-मरण और सुख-दुख
महाराजश्री की आज्ञा शिरोधार्य कर हमने समयसार की १९वीं गाथा
के भाव को सरलतम भाषा में लगभग ३० मिनट तक समझाया; जिसे सभी ने बहुत पसंद किया ।
इसप्रकार यह हमारी विदेशयात्रा अनेक मंगल प्रसंगों, सुखद संस्मरणों एवं नई आशा और उमंगों को अपने में समेटे निर्विघ्न समाप्त हुई और हम नये विश्वास के साथ ३ अगस्त, १९८८ ई. को अपने घर जयपुर आ पहुँचे, जहाँ ७ अगस्त, १९८८ ई. से १५ दिन का शिक्षण शिविर आयोजित था ।
प्राप्ति और प्रचार
सत्य की प्राप्ति और सत्य का प्रचार दो अलग-अलग चीजें हैं । सत्य की प्राप्ति के लिए समस्त जगत से कटकर रहना आवश्यक है । इसके विपरीत सत्य के प्रचार के लिए जन सम्पर्क जरूरी है । सत्य की प्राप्ति व्यक्तिगत क्रिया है और सत्य का प्रचार सामाजिक प्रक्रिया । सत्य की प्राप्ति के लिए अपने में सिमटना जरूरी है और सत्य के प्रचार के लिए जन-जन तक पहुँचना ।
साधक की भूमिका और व्यक्तित्व द्वैध होते हैं । जहाँ एक ओर वे आत्मतत्त्व की प्राप्ति और तल्लीनता के लिए अन्तरोन्मुखी वृत्तिवाले | होते हैं, वहीं प्राप्त सत्य को जन-जन तक पहुँचाने के विकल्प से भी वे अलिप्त नहीं रह पाते हैं ।
उनके व्यक्तित्व की यह द्विविधता जन-सामान्य की समझ में सहज नहीं आ पाती । यही कारण है कि कभी-कभी वे उनके प्रति शंकाशील हो उठते हैं ।
यद्यपि उनकी इस शंका का सही समाधान तो तभी होगा जबकि वे स्वयं उक्त स्थिति को प्राप्त होंगे, तथापि साधक का जीवन इतना सात्विक होता है कि जगत-जन की वह शंका अविश्वास का स्थान नहीं ले पाती
सत्य की खोज, पृष्ठ
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