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आत्मा ही है शरण
लिस्टर में ही छोड़कर मुझे लन्दन के लिए रवाना होना पड़ा, अन्यथा वे हमारे साथ ही लन्दन आनेवाले थे, शाम का भोजन भी हम साथ ही करनेवाले थे ।
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लौटकर लन्दन में फिर हमारे दो प्रवचन हुए । हमारे प्रवचन के पूर्व चिरंजीव परमात्मप्रकाश के प्रवचन रखे गये थे । चूँकि वे गुजराती में प्रवचन करते थे; अतः लोगों ने उन्हें हमसे भी अधिक पसंद किया; क्योकि श्रोताओं में गुजराती भाषी लोग अधिक रहते थे । हम तो २५ जुलाई, १९८८ ई. के प्रातः बम्बई के लिए रवाना हो गये, पर परमात्मप्रकाश को कुछ व्यापारिक कार्य था; अतः वे रुक गये । अतः उनका प्रवचन २५ जुलाई, १९८८ ई. को भी लन्दन में हुआ ।
२७ जुलाई को हम बम्बई पहुँचे और वहाँ से २८ जुलाई को ही कोथली ( कर्नाटक ) के लिए रवाना हो गये; क्योंकि वहाँ आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज के सान्निध्य में आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राव्दी समारोह का उद्घाटन था । वहाँ पर समाज के सभी गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। दिगम्बर जैन महासमिति के अध्यक्ष साहू श्रेयांसप्रसादजी, महामंत्री श्री बाबूलालजी पाटोदी, दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष साहू अशोककुमारजी, महामंत्री जयचंदजी लुहाड़े, आदि अनेक महानुभाव उपस्थित थे ।
वहाँ भी महाराजश्री की प्रेरणा से लगभग दश हजार के जनसमूह में हमें दो बार बोलने का अवसर प्राप्त हुआ । पहली बार तो हमने सामाजिक परिस्थिति पर ही प्रकाश डाला, सामाजिक एकता पर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी समारोह पर अपना समर्पण व्यक्त किया तथा इस अवसर पर हम क्या कर रहे हैं यह भी बताया; पर दूसरे व्याख्यान के पूर्व महाराजश्री का स्पष्ट आदेश था कि सामाजिक बातें तो सभी करते हैं, आप तो उपस्थित समाज को समयसार ही सुनाइये; सब आपसे समयसार ही सुनना चाहते हैं ।
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