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जीवन-मरण और सुख-दुख
इसपर यदि कोई कहे कि यदि ऐसा है तो हम पड़ोसियों से राग-द्वेष न करके कर्मों से राग-द्वेष करेंगे; उनसे कहते हैं कि हे भाई ! एक बार तुम पड़ोसियों से राग-द्वेष करना तो छोड़ो, फिर कर्मों से भी राग-द्वेष करना संभव न होगा; क्योंकि कर्म भी तो तुम्हारे किए हुये ही हैं, तुमने ही पर पदार्थों से राग-द्वेष करके जो कर्म बाँधे थे, वे ही तो उदय में आकर इष्ट-अनिष्ट रूप से फलते हैं । इसमें कर्मों का क्या दोष है ? दोष तो पूर्णतः तुम्हारा ही है । इस पर यदि तुम कहो कि यदि ऐसा है तो हम स्वयं से राग-द्वेष करेंगे, पर ऐसा नहीं होता; क्योकि जब बात स्वयं पर आती है तो सब शांत हो जाते हैं ।
जब कांच का गिलास दूसरों से फूटता है तो हम बड़बड़ाते हैं, पर जब स्वयं से फूट जाता है तो चुपचाप शांत रह जाते हैं, किसी से कुछ नहीं कहते । इसीप्रकार जब आप यह समझेंगे कि जो भी सुख-दुख व अनुकूलता-प्रतिकूलता प्राप्त हो रही है, वह सब मेरे पूर्वकृत कर्मों का ही परिणाम है तो सहज समताभाव जागृत होगा, शान्ति से सब सहन कर साम्यभाव धारण कर लेंगे ।
अतः राग-द्वेष कम करने का सरलतम उपाय अपने सुख-दुख का कारण अपने में ही खोजना है, मानना है, जानना है ।
यह कैसे संभव है कि हमारे पाप का उदय हो और हमें कोई सुखी करदे । इसीप्रकार यह भी कैसे संभव है कि हमारे पुण्य का उदय हो
और हमें कोई दुखी करदे । यदि ऐसा होने लग जावे तो फिर स्वयंकृत पाप-पुण्य का क्या महत्त्व रह जायेगा ? उक्त संदर्भ में आचार्य अमितिगति का निम्नांकित कथन ध्यान योग्य है -
"स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फल तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ निजार्जित कर्म विहाय देहिनो न कोपि कस्यापि ददाति किचन । विचायन्नेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्च शेमुषीम् ॥