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आत्मा ही है शरण
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___ इस जीव के द्वारा पूर्व में जो शुभ और अशुभ कर्म स्वयं किए कहे गये हैं, उनका ही फल उसे वर्तमान में प्राप्त होता है । यह बात पूर्णतः सत्य है, क्योंकि यदि यह माना जाय कि सुख-दुख दूसरों के द्वारा किये जाते हैं तो फिर स्वयं किए गये संपूर्ण कर्म निरर्थक सिद्ध होंगे । ___ अपने द्वारा किये गये कर्मों को छोड़कर इस जीव को कोई भी कुछ नहीं देता । जो कुछ भी सुख-दुख इसे प्राप्त होते हैं, वे सब इसके ही शुभाशुभ कर्मों के फल हैं । इसलिए मन को अन्यत्र न भटका कर, अनन्य मन से इस बात का विचार करके पक्का निर्णय करके हे भव्यात्मा । 'सुख-दुख दूसरे देते हैं। - इस विपरीत बुद्धि को छोड़ दो ।" ___ यदि हम जीवनभर पाप करते रहें, फिर भी कोई हमें उन पाप कर्मों के फल भोगने से बचाले, दुखी न होने दे, सुखी करदे तो फिर हम पाप करने से डरेंगे ही क्यों ? बस किसी भी तरह हो, उसे ही प्रसन्न करने में जुटे रहेंगे; क्योंकि सुख-दुख का संबंध अपने कर्मों से न रहकर पर की प्रसन्नता पर आधारित हो गया । यह मान्यता तो पाप को प्रोत्साहित करने वाली होने से पाप ही है । __ इसीप्रकार यदि हम जीवनभर पुण्य कार्य करें, फिर भी कोई हमें दुखी करदे तो फिर हम सुखी होने के लिए पुण्य कार्य क्यों करेंगे, बस उसकी ही सेवा करते रहेंगे, किसी भी प्रकार क्यों न हो, उसे ही प्रसन्न रखेंगे ।
बुरे कार्य करने में हतोत्साहित एवं अच्छे कार्य करने में प्रोत्साहित तो यह जीव तभी होगा, जबकि उसे इस बात का पूरा भरोसा हो कि बुरे कार्य का बुरा फल और अच्छे कार्य का अच्छा फल निश्चितरूप से भोगना ही होगा ।
इसी बात पर व्यंग्य करते हुए किसी कवि ने लिखा है - अरे जगत में वह ईश्वर क्या कर सकता है इन्साफ । अरे प्रार्थना की रिश्वत पर कर देता जो माफ ॥