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विदेशों में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता
__ "मनुष्य और पशुओं में मूलभूत अन्तर यही है कि मनुष्य को पैतृक सम्पत्ति के रूप में अपने माँ-बाप से कुछ न कुछ अवश्य उपलब्ध होता है, जब कि पशु इस उपलब्धि से वंचित ही रहते हैं। हम सबको भी अपने माँ-बाप से भौतिक सम्पत्ति के साथ-साथ नैतिक संस्कार और सामान्य तत्त्वज्ञान की भी उपलब्धि हुई हैं। णमोकार मंत्र, पंचपरमेष्ठी की उपासना और सात्त्विक निरामिष जीवन मिला है।
जब हम भौतिक सम्पत्ति को कई गुना करके अपनी सन्तान को दे जाना चाहते हैं तो क्या अपनी सन्तान को आध्यात्मिक धार्मिक संस्कारों को दे जाना हमारा कर्तव्य नहीं है? यह कर्तव्य हमारी पिछली शताधिक पीढ़ियाँ सतर्कता से निभाती आ रही हैं, अन्यथा भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित तत्त्व हमें आज कैसे उपलब्ध होता ?
सदाचारी नैतिक जीवन और जैन तत्त्वज्ञान की अविरल धारा जो पच्चीस सौ वर्ष से लगातार अविच्छिन्न चली आ रही है, उसकी उपेक्षा करके क्या हम ऐसा भयंकर अपराध नहीं कर रहे हैं, जो हमारी शताधिक पीढ़ियों से आज तक कभी नहीं हुआ है और जिसका परिणाम हमारी भावी एक पीढ़ी को नहीं, अनेकानेक पीढ़ियों को भोगना होगा? भारत में तो सामाजिक वातावरण से भी बच्चे कुछ न कुछ धार्मिक संस्कार ग्रहण कर ही लेते हैं, यहाँ तो उसप्रकार का वातावरण उपलब्ध नहीं है। अतः बच्चों में धार्मिक संस्कार डालने का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व अभिभावकों का ही है।"
इस सन्दर्भ में क्या किया जा सकता है? -इसकी चर्चा करते हुए मैंने कहा :
"आपका सद्भाग्य है कि आप लोगों को सप्ताह में शनिवार और रविवार दो दिन का पूर्णावकाश मिलता है। इसमें से एक दिन आप अपने गृहस्थी के कार्यों या घूमने-फिरने में लगाइये और दूसरे दिन प्रत्येक नगर में रहनेवाले जैनबन्धुओं का किसी एक स्थान पर सामूहिक रूप से मिलने का कार्यक्रम रखिए, जिसमें भक्ति-संगीत के साथ-साथ सभी आयुवर्गों के लिए यथासंभव