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आत्मा ही है शरण
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हो सकता है भारत में आपको अधिक लोग सुनते हों, यहाँ उतनी संख्या आपको न मिलती हो, पर आप संख्या का विचार मत कीजिए । हमारी भावना को देखिए । आपको आना तो होगा ही, इसके लिए हमें जो भी करना होगा करेंगे, पर आपको आना तो अवश्य ही होगा । हम रमणीकभाई वदर से भी अनुरोध करेंगे ।
इसप्रकार हम देखते हैं कि पश्चिमी जगत के जैन भाइयों में जिन-अध्यात्म के बीज तो पड़ गये हैं, अब उन्हें सींचने की आवश्यकता है। __इस वर्ष आचार्य कुन्दकुन्द का दो हजारवाँ वर्ष होने से हमारा चित्त
भी उन्हीं के ग्रंथों पर प्रवचन करने का था, सबकी जिज्ञासा देखकर हमारे विचार को बल मिला और हमने सभी जगह 'कुन्दकुन्द शतक' के आधार पर ही प्रवचन किए । प्रत्येक कार्यक्रम 'कुन्दकुन्द शतक' के आद्योपान्त सामूहिक पाठ से आरंभ होता था, जिसे सभी लोग मनोयोग से पढ़ते थे । 'कुन्दकुन्द शतक' की दो सौ प्रतियाँ हम साथ ले गये थे, जो सभी के हाथ में दे जाती थीं। पुस्तकें कम पड़ने पर उनके फोटोस्टेट करा लिए गये थे ।
यह तो आपको विदित ही है कि 'कुन्दकुन्द शतक' की विभित्र रूपों में एक लाख प्रतियाँ छप चुकी हैं और 'कुन्दकुन्द शतक पद्यानुवाद' के दश हजार संगीतबद्ध केसेट भी जन-जन तक पहुंच चुके हैं । इसके अंग्रेजी, मराठी और कन्नड़ में अनुवाद हो चुके हैं, जो छपने के लिए प्रेस में दे दिये गये हैं । अन्य भाषाओं में भी इसीप्रकार के प्रयत्न चालू हैं ।
इसप्रकार कुन्दकुन्द वर्ष देश में आरंभ होने के पहले ही विदेश में आरंभ हो गया । __इस वर्ष की यात्रा न्यूयार्क से ही आरंभ हुई । ५ जून, १९८८ ई. को प्रातः दिल्ली से चलकर न्यूयार्क पहुँचे, जहाँ डॉ. धीरूभाई शाह एवं रेखाबैन शाह के घर ठहरे । १० जून को उनके घर पर कार्यक्रम आरंभ हुआ । 'कुन्दकुन्द शतक' की गाथा ४६ से ५२ तक की गाथाओं के आधार