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जीवन-मरण और सुख-दुख
आपको यह जानकर भी हर्ष होगा कि शिकागो में समयसार की ६वीं, ३८वीं, ७३वीं और १८६वीं गाथा पर प्रवचन करने की मांग की गई थी। लोगों ने समयसार का सामूहिक स्वाध्याय किया था । स्वाध्याय के बीच जो प्रश्न उपस्थित हुए, उन्हें कम्प्यूटर में नोट कर दिये थे । हमारे पहुँचने पर कम्प्यूटर से प्रश्न निकालकर उनका समाधान सभा में ही कराया गया ।
यह सब देखकर हमारा हृदय गद्गद् हो गया और अब हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि विदेशों में बसे जैन धर्मानुयायियों में जिन-अध्यात्म के प्रति गहरी जिज्ञासा जाग गई है । अतः अब हम स्पष्ट अनुभव करते हैं कि हमारा यह पंचवर्षीय प्रवास निरर्थक नहीं गया है, श्रम सफल ही रहा है ।
लोगों की जिज्ञासा जानने के लिए लगभग सभी जगह हमने एक बात अवश्य कही कि हमारे आने का यह अन्तिम वर्ष है, अब हम आगे नहीं आ सकेंगे; क्योंकि हमने पश्चिमी जगत में जिन-अध्यात्म की नींव डालने के लिए पाँच वर्ष तक अपनी ओर से स्वयं आने का संकल्प किया था; रमणीकभाई वदर की भी यही भावना थी, उनका भी यही संकल्प था, जो अब पूरा हो गया है ।
इस पर लोगों ने तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की । लगभग सभी जगह यही कहा गया कि ऐसा नहीं हो सकता, आपको आना ही होगा । जब आपने हमें इस लाइन पर लगाया है तो संभालना भी होगा । अब जब अध्यात्म
की बेल कुछ लहलहाने लगी है, तब उसे आप ऐसे ही निराधार कैसे छोड़ ___ सकते हैं ? हम अपनी शंकाओं के समाधान के लिए वर्षभर प्रतीक्षा करते
हैं, आपके प्रवचनों के टेपों को वर्षभर सुनते हैं, एक प्रवचन को पच्चीस-पच्चीस बार सुनते हैं, उस पर गंभीरता से विचार करते हैं, परस्पर चर्चा करते हैं।