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[ आप कुछ भी कहो
- हाँ, तो जगदम्बे! सत्य भी, नाटक भी - यह कुछ समझ में नहीं आया।"
"नाटक तो इसलिए कि मैं तो नाटक ही कर रही थी, पर सत्य इसलिए कि मेरे पति को भी इस नाटक का पता नहीं था। उन्हें कुछ बताने का अवसर ही नहीं मिला था। आपके पाण्डित्य की परीक्षा के विकल्प में ही यह नाटक रचा था।"
"तो क्या आप नाटककार भी हैं, क्या आपने कोई नाटक भी लिखा है ?" "नहीं तो" "पर अभी आपने कहा था कि नाटक रचा।"
"हाँ, नाटक ही तो रचा और क्या किया ? नाटक रचने के लिए नाटक लिखने की क्या आवश्यकता है ? जो नाटक रचना नहीं जानते, लिखने के चक्कर में वे ही पड़ते हैं। कहीं नाटक लिखकर भी रचे जाते हैं ? यदि पति को बता देती तो वे नाटक खेल नहीं पाते, मात्र अभिनय करते। अभिनय में वास्तविकता थोड़े ही आ पाती है। अभिनय तो अभिनय ही है, उसमें सत्य कहाँ?
आपको भी पता होता कि आप भी इस नाटक के अभिनेता हैं, दर्शक हैं, तो न तो आप ढंग से अभिनय ही कर पाते और न जिस रूप में इस नाटक को आपने अभी देखा है, उस रूप में देख ही पाते। बस इसे आप हास्यनाटिका ही समझते । इसमें जैसा नवरसों का परिपाक अभी हुआ है, वैसा तब न होता। नाटक तो तबतक ही नाटक है, जबतक उसे दुनिया सत्य समझे नाटक को नाटक समझ लेने पर नाटक का सब मजा ही किरकिरा हो जाता है। __ मैं अभिनेत्री हूँ, पर दूसरों के लिखे नाटकों को खेलनेवाली नहीं। मैं अभिनेत्री हूँ; पर बिकाऊ नहीं, दूसरों के लिए खेलनेवाली नहीं। मैं तो जो भी नाटक खेलती हूँ, स्वान्तःसुखाय ही खेलती हूँ।"
"हे भगवती ! आज मेरी समझ में बहुत-कुछ आ रहा है।" "अच्छा, तो बताओ क्या आया तुम्हारी समझ में ?'' "यही कि आज तक जो मैंने समझा है, उसमें कुछ दम नहीं है।"