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तिरिया चरित्तर ]
"नहीं, तो फाड़ डालो इन पोथियों को; आग लगा दो इन पोथियों में । इनमें तुमने जिन नारियों के चरित्रों का चित्रण किया है, वे इस लोक की नहीं, कवियों के कल्पना - लोक की नारियाँ हैं; ऋषियों के भावना - भवन में जन्मी, पली - पुसी नारियाँ हैं, लेखकों के हाथों की कठपुतलियाँ हैं । कठोर बत्तीस दाँतों के बीच रहनेवाली कोमल जबान की जिन्दादिली, ताजगी, चपलता और चतुराई जैसी इन क्रूर पुरुषों के बीच जीवन निर्वाह करनेवाली हम जैसी जिन्दा वीरबालाओं में पाई जाती है; वैसी तुम्हारी पोथियों में कैद कल्पनालोक की काल्पनिक कन्याओं में कहाँ ?"
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अब वह अपढ़ वीरबाला प्रवचन कर रही थी और ब्रह्मज्ञानी पण्डितराज पहली कक्षा के बालक के समान भयभीत विनम्र मुद्रा में उसके सामने बैठे सुन रहे थे।
जब उसका प्रवचन समाप्त हुआ तो सकपकाते हुए पंडितराज बोले"तो क्या यह सब सत्य नहीं था, तथ्य नहीं था; मात्र नाटक था, भ्रमजाल
था।"
"यह नाटक भी था और सत्य भी था, सत्य होकर भी नाटक था और नाटक होकर भी सत्य था । "
"माँ ! आप क्या कहना चाहती हो, मैं कुछ समझा नहीं । "
" अब मैं तुमसे आप हो गई और बेटी से माँ ।"
"हाँ, लग तो कुछ ऐसा ही रहा है। जब मैं आया था, तुम बेटी-सी ही लगी थीं। बीच में जो कुछ घटा, उसमें रमणी प्रतीत हुईं और अब साक्षात् जगदम्बा लग रही हो। यदि मैं स्वप्न नहीं देख रहा हूँ तो यह सब सत्य ही भासित हो रहा है ।
वैसे तो हर नारी इन स्थितियों में से गुजरती ही है, पर उसमें कम से कम ६०-७० वर्ष लग जाते हैं, किन्तु यहाँ तीन-चार घड़ियों में ही यह सब कुछ घट गया। बस आश्चर्य इस बात का ही है ।