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[ आप कुछ भी कहो
वह अपनी बात पूरी ही न कर पाई थी कि महाराज उपदेश की मुद्रा में आते हुए बोले -
"हाँ, हाँ, हम ही ने लिखे हैं । इनमें नारी - चरित्र के सभी पहलुओं पर बड़ी ही गहराई से प्रकाश डाला गया है। इनमें कौशल्या और कैकेई, सीता और सूर्पनखा, राधा और कुब्जा, मन्दोदरी और मन्थरा आदि सभी प्रकार के नारीचरित्रों को अन्तरंग मनोविज्ञान एवं तर्क की कसौटी पर परखा गया है।
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इनमें क्या नहीं है? नारी का शील है, संयम है; चंचलता है, कुटिलता है प्रेम है, प्रेमाभिनय है । नारी हृदय की गहराईयों के गुप्त से गुप्त रहस्य को इनमें उद्घाटित कर दिया गया है। अधिक क्या कहें -
'स्त्रीचरित्रं, पुरुषस्य भाग्यं । देवो न जानाति, कुतो मनुष्यः ;'
- यह ग्रन्थराज इस सूक्ति की सत्यता पर प्रश्नचिह्न लगा देनेवाला सिद्ध होगा । "
पण्डितराज का अपने पाण्डित्य को प्रदर्शित करनेवाला प्रवचन धाराप्रवाहरूप से चल रहा था और उनकी एकमात्र श्रोता गृहमालकिन महिला बड़े ही गद्गदभाव से सुने जा रही थी ।
जब पण्डितराज ने जरा-सी साँस ली तो उसने अवसर पाकर एक छोटासा प्रश्न दाग दिया - "क्यों महाराज आप तो ब्रह्मज्ञानी भी हैं न ?"
"हाँ, हाँ; ब्रह्मज्ञानी तो हैं हीं । हमारे ये बाल धूप में सूखकर सफेद थोड़े ही हुए हैं। आत्मा और परमात्मा की मीमांसा में ही जीवन बीता है। ब्रह्मलीनता ही हमारा मुख्य कार्य है। आत्मा-परमात्मा की तो हम नस-नस जानते हैं । " "अच्छा, महाराज ! क्या आत्मा में भी नसें हो: हैं?"
उसकी मूर्खतापूर्ण जिज्ञासा पर अट्टाहास करते हुए पण्डितराज बड़े ही कोमल सम्बोधनों से सम्बोधित करते हुए बोले
" बेटी, तुम नहीं समझोगी। आत्मा में तो नसें नहीं होतीं, पर यहाँ नस का अर्थ नस नहीं समझना, गहराई समझना चाहिए।
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हम सब जानते हैं कि गीता में आत्मा को अजर-अमर कहा है, गोम्मट्टसार में मैली-कुचैली कहा है और समयसार में शुद्ध -बुद्ध बताया है । '