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________________ गाँठ खोल देखी नहीं ] "मैंने तो अनेक बार कहा; पर तू समझा नहीं, तो मैं क्या करूँ?" "कब?" "क्या मैंने नहीं कहा था कि मैं सारी सम्पत्ति देकर भी इस लाल की कीमत नहीं चुका सकता।" "कहा तो था।" "बस, मैं चेतनलाल की ही कीमत लगा रहा था।" (९) अव तो पिछली सभी बातें उसे स्पष्ट होने लगी थीं। वह सोच रहा था कि ज्ञानियों की वाणी का रहस्य भी हम कहाँ समझ पाते हैं? वे जितनी गहराई से बोलते हैं, हम उसकी कल्पना भी तो नहीं कर पाते। सड़कों पर, गलियों में घूमते दर-दर की ठोकर खाते चेतन लालों की कीमत आज किसको है? आज तो सभी जड़ रत्नों के पीछे भाग रहे हैं। आज कौनसा घर इन चेतन लालों से खाली है? कमी लालों की नहीं; उन्हें पहिचाननेवालों की है, सँभालनेवालों की है। दूसरों की बात जाने दीजिये हम स्वयं लाल हैं, पर अपने को पहिचान नहीं पा रहे हैं। __ होना तो महत्त्वपूर्ण है ही; पर जानने, पहिचानने का भी महत्त्व है। हम स्वयं ज्ञान के घनपिण्ड एवं आनन्द के कन्द हैं, पर अपने को जानेपहिचाने बिना कंगाल हो रहे हैं। यदि अतीन्द्रिय ज्ञान और आनन्द की कंगाली दूर करना है तो अपने आपको जानना होगा, पहिचानना होगा; ग्रन्थिभेद करना ही होगा अर्थात् मिथ्यात्व की गाँठ खोलनी ही होगी। कबीर ने ठीक ही कहा है - "सबके पल्ले लाल, लाल बिना कोई नहीं। यातै भये कंगाल, गाँठ खोल देखी नहीं॥" .
SR No.009439
Book TitleAap Kuch Bhi Kaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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