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गाँठ खोल देखी नहीं ]
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"मैं जवेरी जवाहरलालजी का पुत्र हूँ ।"
"जवाहरलालजी के ? वे तो हमेशा हमारे ही यहाँ ठहरते हैं। वे तो हमारे अभिन्न मित्रों में से हैं । इन दिनों बहुत दिनों से नहीं आये। कुछ समाचार भी नहीं दिये । वे क्यों नहीं आये, अच्छी तरह तो हैं ?"
(६)
सेठ माणिकचन्दजी मानों अतीत में चले गये थे । उन्हें वे दिन याद आने लगे थे, जब सेठ जवाहरलालजी बम्बई आया करते थे तो बाजार में विशेष हलचल मच जाती थी। उनके रुख के आधार पर बाजार में तेजी-मंदी हुआ करती थी ।
अब वे न हाथ में रखे लाल को देख रहे थे और न सामने बैठे चेतनलाल कोही । न मालूम कहाँ खो गये थे? जब चेतनलाल ने उनके स्वर्गवास की बात बताई तो एकदम होश में आये और अनेक प्रकार से दु:ख प्रगट करने लगे, खोद-खोद कर अनेक बातें पूछने लगे ।
जब सब कुछ जान लिया तो विचारमग्न हो गये। कभी चेतनलाल को गौर से देखते तो कभी हथेली में रखे लाल को बारीकी से परखते। कभी संसार के स्वरूप पर विचार करते तो कभी जीवन की क्षणभंगुरता के बारे में सोचने लगते । कभी जवाहरलाल के दुर्भाग्य पर दुःखी होते तो कभी अपने दुर्भाग्य पर ।
उनके चेहरे पर आते-जाते भावों को चेतनलाल बारीकी से पढ़ रहा था, पर उनके अन्तर तक पहुँचना सम्भव नहीं हो पा रहा था ।
जब बहुत देर हो गयी तो उसका धैर्य टूटने लगा और उसने उनकी विचार - श्रृंखला को बीच में ही तोड़ते हुए कहा
"सेठजी, इस लाल की आप क्या कीमत दे सकते हैं?"
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अत्यन्त गम्भीर स्वर में सेठजी बोले - "मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहाँ, जो इस लाल की कीमत चुका सकूँ। इस लाल पर तो मैं अपना सब कुछ न्योछावर कर सकता हूँ, पर यह मेरे भाग्य में कहाँ ?"