________________
५१
जरा-सा अविवेक ]
समय यों ही बीत रहा था । सर्दियों के बाद ग्रीष्म ऋतु भी आई। जिस वृक्ष की जड़े कट गई हों, वह तो शीतकाल में ही सूखने लगता है; फिर गर्मियों में तो कहना ही क्या ? बरसात ही एक ऐसी ऋतु है, जो उसे सहारा दे सकती है।
जैसे-तैसे गर्मी भी समाप्त हुई और सम्पूर्ण जगत के तन-मन को ठंडक पहुँचाने वाली पावस भी आ पहुँची । प्यासी धरती की प्यास बुझी, तो उसका तन रोमांचित हो उठा; जगह-जगह दूर्वांकुर फूट पड़े । घर-घर की नालियाँ साफ की जाने लगीं। आठ माह से बन्द पड़ी नालियों में इतना कूड़ा-करकट भर गया था कि पानी निकलने को अवकाश ही न रहा था; अतः उनकी सफाई आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो गई थी; अन्यथा घरों में पानी भर जाने की आशंका थी ।
सेठ धनपतराय के घर की नालियाँ भी साफ की जाने लगीं। धीमी-धीमी बरसात हो रही थी, बच्चे उसमें नहाने का आनन्द उठा रहे थे । वातावरण इतना सुहावना था कि बूढ़े भी बच्चे हो रहे थे। वे भी 'नालियाँ ठीक से साफ हो रही हैं या नौकर-चाकर बेगार टाल रहे हैं' - यह देखने के बहाने बूँदाबाँदी का आनन्द लेने बाहर निकल आये थे; पर सेठ धनपतराय के अवसाद को यह रम्य वातावरण भी दूर न कर पाया था। वे अपने कमरे में कुछ बुदबुदा रहे थे । कह नहीं सकते कि वे किसी स्तोत्र का पाठ कर रहे थे या मन ही मन किसी से जल-भुनकर बड़बड़ा रहे थे ।
जो कुछ भी हो, पर जब बाहर से एकदम 'कड़ा-कड़ा' की आवाजें आई तो न मालूम वे कब एकदम बाहर आ गये? वैसे तो वे कई बार रात में स्वप्न में 'कड़ा-कड़ा' कहकर बड़बड़ाने लगते थे । 'कड़ा' शब्द उनका महामन्त्र बन गया था; अत: ‘कड़ा-कड़ा' सुनकर उनका चौंक पड़ना एवं बाहर आ
ना कोई बड़ी बात नहीं थी; पर आज तो बाहर आकर जो कुछ उन्होंने देखा, वह अद्भुत था, अपूर्व था, उनके लिए तो मानों वरदान ही था ।
वे क्या देखते हैं कि वही कड़ा जो खोया था; तथा जिसके बदले में यह कहकर कि वह मेरी जेब में चला गया था, पण्डितजी दूसरा कड़ा दे गये थे; हाथ में लिए नौकर चिल्ला रहा है
"कड़ा मिल गया, कड़ा मिल गया । "
-
S