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[ आप कुछ भी कहो
उनकी जबान बराबर चल रही थी। पण्डितजी ने वह कड़ा ध्यान से हाथ में लेकर देखा और यह कहते हुए चल दिये -
"लगता है सेठजी मेरे ही घर गये होंगे।"
सेठजी जब पण्डितजी के घर पहुँचे तो पता चला कि वे तो आपके घर ही गये हैं। इस जानकारी से सेठजी को यह समझते देर नहीं लगी कि प्रातः किवाड़ खटखटाने वाले पण्डितजी ही थे और कोई नहीं। अत: वे बहुत देर तक पण्डितजी को यहाँ-वहाँ खोजते रहे, पर जब वे कहीं न मिले तो थकेहारे से घर पहुँचे, जैसे कोई श्मशान से अपने सगे-सम्बन्धी का क्रियाकर्म करके लौटा हो।
आज का दिन दोनों ही मित्रों के लिए जीवन का सबसे अधिक मनहूस दिन साबित हुआ। दो-तीन दिन ऐसे ही निकल गये, वे दोनों एक-दूसरे से मिले ही नहीं। दोनों घरों के वातावरण पर भी उनकी उदासी की मनहूस छाया छाई रही। चौथे दिन पण्डितजी सेठजी के घर पहुँचे और कड़ा देते हुए सेठजी से बोले -