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________________ जरा-सा अविवेक ] कहते-कहते वे रो पड़ीं, तो सांत्वना देते हुए पण्डितजी ने कहा - "बात क्या थी?" "कुछ नहीं, बस इतनी-सी बात थी कि कल बड़े भैया का छोटा बाबू यहाँ खेल रहा था। उसके एक हाथ में से सोने का कड़ा न मालूम कहाँ गायब हो गया। हम उसी को खोज रहे थे। भैया ने पूछा कि कौन-कौन आया था घर पर, तो मेरे कलमुँहे मुख से निकल गया कि पण्डितजी के अलावा और कोई तो आया नहीं। फिर क्या था, उनका पारा आसमान पर चढ़ गया। न मालूम क्याक्या बकने लगे ? मैं तो चुप रह गई, नहीं तो न मालूम आज क्या हो जाता? ___ मैंने आप पर चोरी का इल्जाम थोड़े ही लगाया था। मैं क्या जानती नहीं हूँ कि आपका नाम लूँगी तो ये मेरी खाल खींचकर भुस भर देंगे। पर जब भैया ने पूछा तो मेरे मुँह से सहज ही निकल गया। मैं न भी कहती तो क्या यह बात पता न चलती? दुनिया तो कहती ही कहती। मेरा मुँह बन्द कर दें, पर दुनिया का मुँह कैसे बन्द करेंगे?'' (४) न मालूम बहुत देर तक सेठानी क्या कहती रही? मूल बात कान में पड़ते ही पंडितजी का माथा भन्नाने लगा; अतः आगे वे कुछ भी न सुन सके । दरवाजे पर किवाड़ खटखटाते समय जो कुछ उन्होंने सुना था, उसका सभी कुछ सन्दर्भ स्पष्ट हो गया। सेठानी की जबान रुकी और पंडितजी को जब होश आया तो उन्होंने सहज होते हुए कहा - "कड़ा एक ही खोया है या दोनों ?" "बस एक, दूसरा तो...'' कहते हुए सेठानी कड़ा लेने चली गई। लाकर पंडितजी को बताते हुए कहने लगी - “गत वर्ष ही तो बनवाये हैं चार तोले के दो कड़े। अपने बगलवाले सोनी भैया ही ने तो बनाये हैं। ऐसी डिजाइन तो सिर्फ यही सुनार बना सकता है, औरों से तो हम कभी बनवाते ही नहीं।"
SR No.009439
Book TitleAap Kuch Bhi Kaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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