________________
जरा-सा अविवेक ]
बहुमत अपने में समेट लेने के लिए पर्याप्त थी। समाज के हित के लिए जो भी निर्णय यह जुगल जोड़ी कर लेती, उसे कार्यान्वित होने में देर नहीं लगती। किसी भी सत्कार्य करने के लिए निर्णय पर पहुँचने में इन्हें कभी कोई कठिनाई नहीं हुई थी। बहस के लिए बहस उनमें कभी होती ही न थी, बस सेठजी ने कहा और पण्डितजी ने माना अथवा पण्डितजी ने कहा और सेठजी ने माना ।
४३
(२)
अभी तक सब कुछ ठीक ही चल रहा था; पर जब एक दिन पण्डितजी अपने निश्चित समय पर सेठजी के घर पहुँचे और किवाड़ खटखटाये तो कुछ देर तक किवाड़ खोलने कोई नहीं आया। भीतर कोई न हो यह बात नहीं थी; क्योंकि भीतर से जोर-जोर से बातचीत करने की आवाजें निरन्तर आ रहीं थीं, जैसे कोई झगड़ा हो रहा है। हो सकता है कि इसी कारण किसी का ध्यान किवाड़ों की आहट की ओर न जा सका हो ।
पण्डितजी कुछ देर खड़े रहे, फिर उनका ध्यान अन्दर से आनेवाली आवाजों ने खींचा तो वे क्या सुनते हैं कि सेठ धनपतराय स्वयं जोर-जोर से घरवालों को डाँट रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यदि किसी ने दुबारा इसप्रकार की बात की तो मुझसे बुरा कोई न होगा। तुम नहीं जानते कि मेरे और पण्डितजी के क्या सम्बन्ध हैं? मैं और वे दो शरीर और एक आत्मा हैं ।
पण्डितजी ने जब अपना नाम सुना तो उनकी उत्सुकता बढ़ी। वे सोचने लगे कि चर्चा तो मेरे सम्बन्ध में ही हो रही है। आज सेठजी को उनके घरवालों से मेरे और उनके सम्बन्धों की गहराई बताने की क्या आवश्यकता आ पड़ी ? क्या घरवाले मेरे और उनके सम्बन्धों के बारे में जानते नहीं हैं? कुछ न कुछ विशेष बात अवश्य है। यह सोचकर उन्होंने किवाड़ों को खटखटाना बन्द कर उधर की ओर विशेष उपयोग लगाया। कान लगाकर वे औरतों की फुसफुसाहट को सुनने का यत्न करने लगे ।
पूरी बात तो कुछ पल्ले न पड़ी; पर यह अनुमान अवश्य लगा कि कुछ खो गया है, जिसके सन्दर्भ में उनका नाम आने से सेठजी एकदम आग-बबूला हो उठे हैं - ऐसी स्थिति में उन्हें लौट जाना ही उपयुक्त लगा।