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[ आप कुछ भी कहो
सम्प्रदाय एवं उसका गुरुत्व तो क्या, चक्रवर्ती की सम्पदा एवं तीर्थंकर जैसा गुरुत्व भी तृणवत् त्याग सकता हूँ। मुझे अशरीरी होने का मार्ग मिल गया है, अब मैं इस शरीर की क्या चिन्ता करूँ?"
धमकी देता हुआ तीसरा बोला - "हम सब देख लेंगे, पेट बातों से नहीं भरता। देखें कौन आता है आपके पास? हम अपने सम्प्रदाय को यों ही नहीं बिखर जाने देंगे।" _स्वामीजी के गम्भीर व्यक्तित्व को इसप्रकार की भाषा सुनने की आदत ही न थी; क्योंकि आज तक तो उन्होंने प्रशंसा और स्तुतियाँ ही सुनी थीं। अतः उनकी गम्भीरता ने उपेक्षारूप मौन का आकार ग्रहण किया और वे समयसार के पन्ने उलटते हुए उसके स्वाध्याय में मग्न हो गये।
बात समाप्त होते देख विनम्रता के शस्त्रों से सुसज्जित चौथा बोलने लगा -
"नहीं महाराज! ये तो कुछ समझते नहीं, चाहे जो बक देते हैं। इनकी बात का ख्याल न कीजिये। आपके सम्प्रदाय छोड़ने के समाचार ने इन्हें उद्वेलित कर दिया है; अत: ये होश खो बैठे हैं । इनकी बात का बुरा न मानिये। आप जो कुछ कहेंगे, हम सब वही करेंगे। आप खूब पढ़िये समयसार, हमें भी सुनाइये; हम भी सुनेंगे, समझेंगे भी; पर आप यह मुँहपट्टी मत उतारिये। शेष वस्त्र तो आपने अब भी वैसे ही रखे हैं, बस बात एक छोटी-सी मुँहपट्टी की ही तो है।"
विनम्र भाषा एवं गद्गद स्वर से करुणासागर स्वामीजी विगलित हो उठे और कहने लगे - "भाई ! बात छोटी नहीं, बहुत बड़ी है। यह गृहीत मिथ्यात्व का प्रतीक है। यदि सत्य समझना है, इस भव में भव का अभाव करना है तो तुम्हें भी इसका आग्रह छोड़ना होगा। बात मात्र मुँहपट्टी की नहीं, उसके पीछे छिपी मिथ्या मान्यता की है।"
प्रसन्न होता हुआ पाँचवाँ बोला - "ठीक है महाराज ! ठीक है; यही निवेदन तो हम कर रहे हैं कि आप मान्यता छोड़ दीजिये, पट्टी बनी रहने दीजिये। यही एक रास्ता है, जिसमें लाठी भी न टूटेगी और साँप भी मर जावेगा।"