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________________ ३४ [ आप कुछ भी कहो न्यायबल से तो यह साम्राज्य उसी का है, बाहुबली का ही है। कहाँ वह सौभाग्यशाली बाहुबली, जिसने इस भूमि को जीतकर भी छोड़ दिया और कहाँ मैं, जो उसकी छोड़ी हुई उच्छिष्ट भूमि का उपभोग करने को तैयार हूँ ? क्या मैं अब भी तुम्हारी परिभाषा में उच्छिष्ट भोजी नहीं हूँ?" । "धन्य है, धन्य है; बेटा ! तेरा वैराग्य धन्य है । यह जगत तेरी यह वैराग्य परिणति देखकर जबतक पृथ्वी पर चाँद और सूरज रहेंगे; तबतक तेरी धवल कीर्ति यह कहकर गायेगा कि - भरतजी घर में ही वैरागी, वे तो अन-धन सबके त्यागी ॥ टेक॥ कोड़ अठारह तुरंग हैं जाके, कोड़ चौरासी पागी । लाख चौरासी गजरथ सोहे, तो भी भये नहिं रागी ॥ भरतजी. ॥ तीन करोड़ गोकुल घर सौहैं, एक करोड़ हल साजै । नव निधि रतन चौदह घर जाके, मन वांछा सब भागी ॥ भरतजी. ।। चार कोड़ मण नाज उठै नित, लोण लाख दश लागै । कोड़ थाल कंचन मणि सोहैं, नाहीं भया सोई रागी ॥ भरतजी. ॥ ज्यों जल बीच कमल अन्तःपुर नाहिं भये वे रागी । भविजन होय सोइ उर धारो, सोई पुरुष बड़भागी || भरतजी. ॥" "पर माँ ! क्या यह भी सत्य होगा?" "क्यों नहीं?" "क्या इसी का नाम वैराग्य है ? क्या भरत का यह वैराग्य बाहुबली एवं वृषभसेन जैसे ऋषभपुत्रों के वैराग्य की टक्कर में ठहर सकेगा? बता माँ, तू ही बता ! तेरी कोख से जन्मा वृषभसेन क्या इस भरत से कम भाग्यशाली और वैरागी है, जो पूज्य पिताश्री भगवान ऋषभदेव से दीक्षित होकर उनका प्रथम गणधर हो गया है ?
SR No.009439
Book TitleAap Kuch Bhi Kaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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