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[ आप कुछ भी कहो
ऋषिराज बहुत देर तक वस्तु का सत्य स्वरूप समझाते रहे, प्रत्येक वस्तु की स्वतंत्र सत्ता एवं उसके स्वाधीन परिणमन की सम्यस्थिति का परिज्ञान कराते रहे; पर राजश्रेष्ठी की व्याकुलता कम नहीं हुई। ___ यद्यपि वे कुछ कह न सके, पर उनकी आँखें तो अन्तर को स्पष्ट कर ही रही थीं। उन्होंने जबान से तो कुछ न कहा, पर अश्रुपूरित नेत्रों एवं अवरुद्ध गले से सब-कुछ कह दिया। वे अनिमेष नेत्रों से ऋषिराज को देख रहे थे। वे ऋषिराज के करुणा-विगलित मानस से कुछ आश्वस्त होना चाहते थे, पर उनमें उन्हें असंग वीतरागता के अतिरिक्त कुछ भी न दिखा।
(२)
नगर के निकटस्थ गिरि-गुफा में विराजमान नग्न दिगम्बर सन्त वादिराज के दर्शनार्थ नगरनिवासी उमड़ रहे थे; क्योंकि आज सम्राट भी अपने दरबार के साथ उनके दर्शनार्थ आने वाले थे। जब गुफा के बाहर बहुत भीड़ इकट्ठी हो गई तो कोलाहल सुन ऋषिराज बाहर पधारे।
उगते हुए सूर्य के समान दैदीप्यमान कंचनवर्णी काया, अतीन्द्रियानन्द से तृप्त, शान्त, गुरुगम्भीर तेजोद्दीप्त मुखमण्डल, नवजात शिशु के समान निर्विकार नग्न दिगम्बर वीतरागी निर्भय मुद्रा के धारी ऋषिराज के दर्शन कर प्रजा के साथ सम्राट भी जय-जयकार कर उठे।
सब आश्चर्यचकित एक-दूसरे की ओर देख रहे थे। श्रेष्ठीराज की आँखों से अब भी अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी, पर ये अश्रु आनन्द के थे। मुनिनिन्दा करनेवालों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थीं, पर कोई कुछ बोल नहीं रहा था।
समीपस्थ स्वच्छ शिलाखण्ड पर ऋषिराज के विराजमान होने के बाद नतमस्तक सम्राट भी अपने परिकर के साथ वहीं जमीन पर बैठ गये। जनता भी धीरे-धीरे यथास्थान बैठने लगी। कुछ ही क्षणों में जिसको जहाँ स्थान मिला, वह वहीं बैठ गया।