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[ आप कुछ भी कहो
कहानियों के कथाशिल्प, सम्प्रेषण, भाषा, शैली आदि के बारे में मुझे कुछ भी नहीं कहना है। विषय-वस्तु के सम्बन्ध में जो कुछ कहना है; मूलत: तो वह कहानियों में ही कहा गया है, यहाँ तो बस मात्र यह कहना है कि उस पर जरा ध्यान दें। ___ और अन्त में बस यही कहना है कि इन कहानियों में जिस पावन भावना से कुछ कहने का प्रयास किया गया है; सम्पूर्ण जगत उसी पावन भावना से इसे ग्रहण करे, ग्रहण कर आत्समात् करे।
सम्यक् -मार्गदर्शन की अपेक्षा के साथ,
२४ फरवरी, १९८४ ई.
- (डॉ.) हुकमचन्द भारिल्ल
विनय के बिना तो विद्या प्राप्त होती ही नहीं है; पर विवेक और प्रतिभा भी अनिवार्य हैं, इनके बिना भी विद्यार्जन असम्भव है। गुरु के प्रति अडिग आस्था का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है, पर वह आतंक की सीमा तक न पहुँचना चाहिए, अन्यथा वह विवेक को कुण्ठित कर देगी।
समागत समस्याओं का समुचित समाधान तो स्व-विवेक से ही संभव है; क्योंकि गुरु की उपलब्धि तो सदा सर्वत्र सम्भव नहीं। परम्पराएँ भी हर समस्या का समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकतीं; क्योंकि एक तो समस्याओं के अनुरूप परम्पराओं की उपलब्धि सदा सम्भव नहीं रहती; दूसरे, परिस्थितियाँ भी दो वदलती रहती हैं। ___ यद्यपि विवेक का स्थान सर्वोपरि है; किन्तु वह विनय और मर्यादा को भंग करनेवाला नहीं होना चाहिए। विवेक के नाम पर कुछ भी कर डालना तो महापाप है; क्योंकि निरंकुश विवेक पूर्वजों से प्राप्त श्रुत परम्परा के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।
क्षेत्र और काल के प्रभाव से समागत विकृतियों का निराकरण करना जागृत विवेक का ही काम है, पर इसमें सर्वाङ्ग सावधानी अनिवार्य है।
- इसी पुस्तक में, पृष्ठ २५