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[ आप कुछ भी कहो
अब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि मैं जाग रहा हूँ या स्वप्न ही देख रहा हूँ। मैं कुछ नहीं कह सकता कि मैं जाग रहा था या सो रहा था, सोच रहा था या स्वप्न देख रहा था । जो कुछ भी हो, इससे क्या अन्तर पड़ता है, पर जो मैं जान रहा था, वह यह है कि स्वप्न के सत्य होने का अर्थ मात्र किसी घटना के सत्य होने से ही नहीं होता; अपितु इसमें किसी सत्य का उदघाटन भी हो सकता है, उसमें हमें कोई मार्गदर्शन भी हो सकता है; पर जब हम उसके संकेतों को समझें, तभी उसकी सत्यता की प्रतीति हो सकती है।
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क्या इस स्वप्न में इस परम सत्य का उद्घाटन नहीं हो रहा है कि हम नासमझों को सुधारने के बहाने कितनी नासमझी कर रहे हैं ?
क्या किसी की आवश्यक आवश्यकताओं की माँग को जिद कहा जा सकता है? क्या किसी की धीमी आवाज को सुनने की हमारी क्षमता समाप्त हो गई है? यदि वह अपनी उचित माँग को ऊँची आवाज में प्रस्तुत करता है तो क्या उसे विद्रोह की संज्ञा दी जा सकती है? यदि कोई अपना काम स्वयं कर लेना चाहता है, अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता है तो क्या उसे सहयोग करने की आवश्यकता नहीं है ?
क्या भूखी-नंगी- गूँगी जनता की आवाज सुनने की हमारी क्षमता समाप्त हो गई है ? क्या हम उसकी धीमी पुकार सुनने में सर्वथा असमर्थ हो गये हैं, क्या हम उसकी पुकार को विद्रोह की संज्ञा को प्रदान नहीं कर रहे हैं ?
आवश्यकता उसकी जायज माँगों को पूरी करने की है या उसे विद्रोह कह कर दबाने की है ? क्या इसी तरह का व्यवहार हम अपने बच्चों के साथ भी तो नहीं कर रहे हैं ?
ये कुछ प्रश्न हैं, जिनका उत्तर हमें देना है ।
क्या परिवार और देश दोनों की स्थिति का सम्यक् निर्देश देने वाले इस स्वप्न की सत्यता से इन्कार किया जा सकता है?