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प्रस्तुति
- इस ग्रन्थ क लेखक श्री सुरन्द्र वर्णी गत बीस वर्षों से आत्मसाधना में रत हैं। यह "रत्नत्रय” ग्रंथ सरल भाषा में लिखा गया ऐसा ग्रंथ है जिसमें रत्नत्रय, दशलक्षण धर्म, बारह भावनाओं तथा सोलह कारण भावनाओं का 1008 रोचक एवं शिक्षाप्रद कहानियों के माध्यम स विशद् वर्णन किया गया है। ये कहानियाँ रोचक ता हैं, परन्तु वे मनोरंजन के लिये नहीं वरन् मनोमंजन का हेतु बनें, यह भावना है। ___ 'रत्नत्रय' ग्रंथ के प्रथम भाग में वर्णी जी ने सम्यग्दर्शन की विवेचना महान आध्यात्मिक पंडित श्री दौलतराम जी कृत छहढाला क आधार पर की है। जिसमें शरीरादि परद्रव्यों से भिन्न निज आत्मतत्त्व का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन बताया है। साथ ही उन्होंने इस सम्यग्दर्शन का प्रधान कारण देव-शास्त्र-गुरु की सच्ची श्रद्धा -भक्ति करना लिखा है। जिनेन्द्र भगवान के दर्शन-पूजन क समय उनके गुणों के स्मरण से हमारा सांसारिक अहंकारभाव कम होकर विनय और श्रद्धा गुण जागृत होता है। जब हम उनके गुणों का स्मरण करते हैं तो हमें अपने गुण याद आ जात हैं और यह भावना होती है कि -
तुमम हममें भोद यह, और भेद कछु नाहिं।
तुम तन तज परब्रह्म भये, हम दुखिया जगमाँ हिं ।। अर्थात् हे भगवन्! आपकी और हमारी आत्माएँ और गुण समान हैं, उनमं
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