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कोई भेद है तो मात्र इतना ही है कि आप समस्त कर्मों से छूटकर परमात्मा बन गए, परन्तु हम अभी शरीरादि में मोह होन के कारण संसार में दुःख उठा रह हैं | इस प्रकार देव-शास्त्र-गुरु की पूजा-भक्ति आत्मबोध व जागृति का महान साधन है, जो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में कारण बनता है।
द्वितीय भाग में आपने दशलक्षण धर्म का विस्तृत वर्णन करन के बाद सम्यग्ज्ञान का चित्रण करते हुये लिखा है-मैं चैतन्यस्वरूपी आत्मा हूँ, यह भूलकर अज्ञानीजीव अपने का शरीररूप मानत हैं । अतः शरीर-संबंधी स्त्री-पुत्रादि को अपना मानते हैं, परन्तु यथार्थ में जिन स्त्री-पुत्रादि का जीव अपना मानते हैं, वे अपने हैं नहीं। जहाँ यह एक क्षेत्रावगाही शरीर ही अपना नहीं है, तब दूर रहने वाले परद्रव्य अपने कैसे हो सकत हैं?
जिस प्रकार रेत को पेरन से तेल नहीं निकलता, पत्थर पर घास नहीं उगती, मरा हुआ पशु घास नहीं खाता, उसी प्रकार ये मकान-दुकान आदि आत्मा के कभी नहीं हो सकते । ये जड़पदार्थ अचेतन है और आत्मा चेतन है, दानों का स्वाभाव भिन्न-भिन्न है। परन्तु अपने चैतन्यस्वरूप को न जानन के कारण संसारीप्राणी स्त्री, पुत्र, मकान, दुकान आदि में अहंकार, ममकार करके व्यर्थ दुःखी होते हैं और संसार में परिभ्रमण करत रहते हैं।
जिसने मोह को छोड़कर समस्त जगत से भिन्न ज्ञायकस्वभाव निज आत्मा को पहचाना, उसी ने शुद्ध स्वभाव को उपलब्ध कर मुक्ति को प्राप्त किया। ‘भावना द्वात्रिंशतिका' में आचार्य अमितगतिसूरि ने लिखा है
स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभत शुभाशुभम् |
परेणदत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयंकृतं कर्म निरर्थक तदा।। आज तक अनन्त भवां स 84 लाख यानियों में भ्रमण करते हुए हमें