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विचारधारा को किसी कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है -
मूड़ मुड़ाय तीन गुण, सिर की मिट गई खाज |
खाने को लड्डू मिलें, लाग कहें महाराज || ऐसा सुनकर कि चलो साधु बन जात हैं, खूब पैर एवं पेट पूजा होगी, उसे यह मालूम नहीं कि दुनिया में प्रशंसक एवं निंदक दोनों प्रकार के लोग हैं | नया साधु बना होगा, बाजार में निकला तो लोग कह रहे हैं – नंगा, नंगा | वह कहता है-गुरु महाराज! लोग तो कह रह थे कि दुनिया पूजेगी, इधर ता कह रहे हैं – नंगा, नंगा? तो गुरु महाराज कहते हैं - नंगा ही तो कह रहे हैं, मार तो नहीं रहे हैं। गाली ही तो दे रहे हैं, बता तुझे कहाँ चोट लग गई? बता, तुझे हल्दी चूना लगा के सेंक दं। कहाँ लगी है तुझे चोट, कहाँ दर्द हो रहा है? वह बोला-चोट तो नहीं लगी। फिर क्या बिगड़ गया? वह सोचता है कि बात तो सही है । गाली ही तो दे रहा है, और क्या कर रहा है? गाली देनेवाला सोचता है कि गाली दने का इस पर कोई असर नहीं पड़ा, तो वह डंडा मारता है। देखो, महाराज! अब तो पिटाई हा रही है | पिटाई ही तो हो रही है, प्राण तो नहीं ले रहा है? 'प्राण भी ले रहा है | गुरु बोले-अरे भाई! प्राण ही तो ले रहा है, तेरा धर्म तो नहीं ले रहा है, अतः क्रोध करना व्यर्थ है |
धर्म अनेक रूप में आता है, लकिन हम धर्म को जान नहीं पा रहे हैं | धर्म की कोई जाति नहीं होती है | गरीब, अमीर सब स्वीकार कर सकते हैं। एक भिखारी तीन दिन का भूखा है । दरवाजे, दरवाजे घूम रहा है। कोई उसे भीख देने को तैयार नहीं। सब कह देते हैं-आगे जाइय, आगे जाइये । व्यक्ति दूसरे के ऊपर जब विपत्ति आती है तो सोच नहीं पाता। यदि वही विपत्ति तुम्हारे ऊपर आ जाये तब पता
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