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की इच्छा करता हुआ, इस चतुर्गतिरूप संसार में भटकता हुआ उसी प्रकार दुःखी हो रहा है, जिस प्रकार रेत के वन में हिरण अपनी प्यास बुझाने को सूर्यकिरण से चमकती रेत में जल का आभास मान उसकी ओर दौड़ता है और वहाँ जल न पाकर आकुलित होकर दूसरी ओर फिर उसी भ्रम बुद्धि से दौड़ता है और वहाँ से भी निराश होकर अपनी प्यास बुझाने के लिये भटक भटककर महादुःखी होता है । प्रत्येक जीव स्वभाव से सुख चाहता है, किन्तु अनादि का अज्ञानी T होने के कारण असली सुख से अपरिचित है । इन्द्रियसुख इसके अनुभव में आया है और इसी का उसे चश्का है। प्रातः से सायंकाल तक यह जीव जितना भी पाप करता है, वह केवल इसी सुख की रुचि के कारण करता है, किन्तु उसे सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि यह तो दुःख व अशान्ति का मार्ग है ।
सम्यग्ज्ञान होने पर इस जीव को मोक्ष के निराकुल सुख का ज्ञान व श्रद्धान हो जाता है । सम्यग्ज्ञान के प्रभाव से राग-द्वेष - मोह मिटता है, समता भाव जागृत होता है, आत्मा में रमण करने का उत्साह बढ़ता है, स्वानुभव जागृत हो जाता है, जिसके प्रताप से सुख-शान्ति का लाभ होता है, आत्मबल बढ़ता है, कर्म का मैल कटता है, परम धैर्य प्रकाशित होता है, यह जीवन परम सुन्दर सुवर्णमय हो जाता है । यह मोक्षमार्ग का द्वितीय रत्न है। सभी को सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों का पालन करते हुये जिनवाणी का स्वाध्याय कर सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास अवश्य करना चाहिये ।
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