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सुख बच्चा देखने का नहीं हुआ, अपितु उसे सुख इस बात का हुआ कि हाथी द्वारा मारा गया बच्चा उस का नहीं है । इसी तरह पर-पदार्थों में जब-तक अपने पन की ममत्व बुद्धि रहेगी, तब तक उस व्यक्ति के समान उसे बेहोशी का नशा छाया रहेगा और पर में अपनत्व की बुद्धि दूर होते ही आनन्द की लहरें आने लगेंगी। इस ममत्वरूपी पिशाचनी ने कितनों को इस संसार में डुबाया है, मोह में ही जीवों ने अनन्तानन्त भव बिता दिये, फिर भी ममत्व बुद्धि नहीं गयी । इसीलिए कहा है
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उत्तमा स्वात्मचिंता स्यात्, देह चिंता च मध्यमा । अधमा कामचिंता स्यात्, परचिंताधमाधमा । |
अपने आत्मा की चिन्ता उत्तम है, शरीर की चिन्ता मध्यम है, विषयों की चिंता अधम है और दूसरों की चिन्ता अधम से भी अधम है ।
आत्मा और शरीर का संबंध अनादिकाल से एकक्षेत्रावगाह होकर भी किस प्रकार अलग है, यह आचार्य देव निम्न श्लोकों द्वारा स्पष्ट करत हैं
पाषाणेषु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथा घृतम् । तिलमध्ये यथा तैलं देहमध्ये यथा शिवः ।।
जैसे पत्थर में सोना रहता है, दूध में घी रहता है, तिल मं तेल रहता है, उसी प्रकार शरीर में यह आत्मा रहती |
काष्ठमध्य यथा वह्निः, शक्तिरूपेण तिष्ठति । अयमात्मा शरीरेषु, यो जानाति स पण्डितः । ।
जिस प्रकार लकड़ी में शक्ति रूप अग्नि रहती है, उसी प्रकार शरीर में आत्मा रहती है। जो ऐसा जानता है, वह पण्डित है । नलिन्यां च यथा नीरं भिन्नं तिष्ठति सर्वदा ।
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